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________________ १९४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ४ : सूत्र १७-२० इसे एक उदाहरण से समझ ले। जैसे एक सामान्य मकान और कोई आलीशान बंगला, जिसमें आधुनिकतम सभी सुविधाएँ उपलब्ध है. । मकान या निवास स्थान दोनों ही है। किन्तु जैसा अन्तर इन मकानों में है, वैसा ही अन्तर अन्य देवों और वैमानिक देवों के विमानों में समझ लेना चाहिए । कल्पोपपन्न और कल्पातीत का अन्तर - जहां तक इन्द्र, मंत्री सेनापति आदि की व्यवस्था है, वे कल्प कहलाते हैं और उनमें उत्पन्न होने वाले देव कल्पोपपन्न । ऐसी व्यवस्था बारहवें स्वर्गलोक तक ही है । (जहाँ इन्द्र आदि की भेद-रेखा नहीं है, सभी देव समान हैं, (इन्हें अहमिन्द्र भी कहते हैं, ) वे कल्पातीत कहलाते हैं । ९ ग्रैवेयक और ५ अनुत्तर विमानों के देव कल्पतीत हैं । विमानों की अवस्थिति - यह सभी विमान ऊपर-ऊपर हैं। सूत्र का यह कथन सामान्य है । इसका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है - (१-२) सौधर्म और ईशानकल्प - जंबूद्वीप के मेरुपर्वत से असंख्यात योजन (१,१/२ डेढ राजू) ऊपर जाने पर मेरूपर्वत की दक्षिण दिशा में पहला सौधर्म कल्प है और इसी की समश्रेणी में दूसरा ईशान कल्प है। दोनों ही लगड़ाकार (खड़े अर्द्ध चन्द्र आकार के समान) हैं । दोनों मिलकर पूर्ण चंद्र के आकार के दिखाई देते हैं । पहले स्वर्ग में १३ प्रतर हैं, दूसरे स्वर्ग में भी १३ प्रतर हैं । पहले स्वर्ग में ३२ लाख विमान हैं और दूसरे देवलोक में २८ लाख । पहले स्वर्ग का इन्द्र सौधर्म है । इसे शक्रेन्द्र भी कहा जाता है । दूसरे स्वर्ग का इन्द्र ऐशान है । (३-४) सानत्कुमार और माहेन्द्रकल्प - पहले तथा दूसरे कल्प से असंख्यात योजन उपर जाने पर पहले कल्प के ऊपर तीसरा कल्प सानत्कुमार है और उसी की सम-श्रेणी में चौथा कल्पमाहेन्द्र है । ये दोनों भी लगड़ाकार हैं । इन दोनों स्वर्गों में बारह-बारह प्रतर हैं तथा तीसरे में १२ लाख व चौथे में ८ लाख विमान है । (५) ब्रह्मलोक - तीसरे और चौथे स्वर्ग से असंख्यात योजन (१/ २ राजू) ऊपर जाने पर पांचवाँ ब्रह्मलोक नाम का कल्प है। यह पूर्णचन्द्र के आकार का है । इसमें ६ प्रतर तथा चार लाख विमान है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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