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________________ १९० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ४ : सूत्र १३-१६ ६ शनि ८८,५९,००,००० ७३००० २९.४६ ७ अरुण १,७८,२२,००,००० ३१९०० ८४.०२ . ४ ८ वरुण २,७९,१६,००,००० ३४८०० १६४.७८ १ ९ कुबेर ३,७०,००,००,००० ३६०५ २५०.०० अज्ञात सूर्य तथा उसका ग्रह कुटुम्ब मिलाकर सूर्य मण्डल कहा जाता है । सूर्य मण्डल लगभग ९०० करोड़ मील लम्बा चौड़ा हैं । हमारा सूर्यमण्डल (अपने सम्पूर्ण और परिवार से परिवृत होकर) ऐरावत पथ नामक ब्रह्मांड में स्थित हैं और मन्दाकिनी आकाश गंगा का चक्कर लगा रहा है। इसमें इसे ३० करोड़, ६७ लाख, २० हजार वर्ष लगते हैं । इस ब्रह्मांड में ऐसे १॥ अरब सूर्य मण्डल घूम रहे हैं । इत्यादि । - वैज्ञानिकों द्वारा ब्रह्मांड का कथन तो बहुत लम्बा है, वह सारा वर्णन यहाँ न प्रसंगोपात्त है और न उपयोगी ही है। यहाँ तो हमें सिर्फ यह देखना है कि वैज्ञानिक मत और जैनदर्शन में प्रमुख अन्तर क्या हैं ? नक्षत्रों के इस गम्भीर गणित और भूल-भुलैया में जनसाधारण की अधिक रुचि भी नहीं है। उन्हें इस बात से कोई अन्तर नहीं पड़ता कि सूर्य पृथ्वी से कितनी दूर है अथवा उसमें कितनी गर्मी है । ___सामान्य व्यक्ति की जिज्ञासा तो प्रमुख रूप से एक ही है कि सूर्य घूमता है अथवा पृथ्वी ? पृथ्वी और सूर्य में से कौन स्थिर हैं और कौन चल है ? क्योंकि जैनदर्शन पृथ्वी को स्थिर और सूर्य को गतिशील मानता है जबकि वैज्ञानिक पृथ्वी को भी गतिशील मानते हैं । ___ उपरोक्त वैज्ञानिक मान्यता से यह तो स्पष्ट हो गया है कि वैज्ञानिक भी सूर्य, बुध, बृहस्पति आदि सभी ग्रहों को गतिशील मानते हैं । अन्तर सिर्फ इतना ही है कि वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार अन्य ग्रह सूर्य की परिक्रमा लगाते हैं और सूर्य उन सभी ग्रहों से परिवृत होकर मंदाकिनी आकाशगंगा की परिक्रमा लगा रहा है तथा वह सम्पूर्ण आकाशगंगा किसी और आकाशगंगा की परिक्रमा कर रही हैं, यही क्रम ब्रह्मांड में चल रहा है । जबकि जैन दर्शन के अनुसार सूर्य आदि सभी ज्योतिष्क देव मेरु की प्रदक्षिणा लगा रहे हैं। किन्तु प्रमुख मतभेद पृथ्वी के गतिशील होने या न होने का है । इस विषय में थोड़ी चर्चा आवश्यक है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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