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ऊर्ध्वलोक - देवनिकाय
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(१०) दिक्क मार
इनका चिन्ह हाथी है । इनकी जंघा के अग्रभाग और पैर अधिक सुन्दर होते हैं । वर्ण इनका श्याम है ।
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सूत्र में भवनवासी देवों के यह दस भेद गिनाये गये हैं किन्तु अन्य ग्रन्थों में परमाधामी देवों की गणना भी भवनवासी देवों में की गई है ।
परमाधामी देवों के पन्द्रह प्रकार है
(१) अम्ब ( २ )
अम्बरीष ( ३ ) श्याम (४) सबल (५) रूद्र (६) महारुद्र (७) काल (८) महाकाल (९) असिपत्र (१०) धनुष्य (११) कुम्भ (१२) बालुका (१३) वैतरणी (१४) खरस्वर और (१५) महाघोष ।
यह परमाधामी देव तीसरी नरक तक जाकर नारक जीवों को परस्पर लड़ाते हैं, उनके दुःखों में वृद्धि करते हैं । सम्भवतः इसी कारण सूत्र में इनकी गणना न की गई हो, क्योंकि यह रौद्र परिणामी होते हैं, दूसरों को कष्ट देकर खुश होते हैं ।
व्यंतर देवों की विशेष बातें
'व्यंतर' शब्द का निर्वचन व्यंतर शब्द दो शब्दों के मेल से बना है वि+अन्तर । वि - विविध प्रकार का अन्तर - रिक्त स्थान । जिन देवों का निवास विविध प्रकार के अन्तरों-रिक्त स्थानों में होता है, वे व्यंतर देव कहलाते हैं ।
व्यंतर देव पर्वतों की कन्दराओं, वृक्षों और वृक्षों के विवरों को अपना निवास स्थान बनाते हैं ।
यद्यपि इन देवों का उपपात स्थान रत्नप्रभा पृथ्वी के १००० योजन मोटे रत्नकाण्ड के ऊपर-नीचे के सौ-सौ योजन छोड़कर मध्यवर्ती ८०० योजन क्षेत्र हैं; किन्तु वहाँ उपपात होने पर भी ये तिर्यक् लोक में वृक्षविवर पर्वत गुफा आदि में रहते हैं ।
इनका स्वभाव बालक के समान चपल होता है, इधर-उधर गमनागमन करते ही रहते हैं; अपने इन्द्र की आज्ञा से भी गमनागमन करते हैं ।
बालक जैसी प्रकृति होने के कारण कोई-कोई व्यंतर देव तो मानवों की सेवा (पूर्व-भव के स्नेह सम्बन्धों के कारण ) सेवकों के समान करते हैं और यदि पूर्वभव का वैर हुआ तो दुःख भी देते हैं ।
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