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________________ १७० तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ४ : सूत्र ८- ९-१० ( भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और) ऐशानकल्प तक के देवकाय अथवा शरीर से (मनुष्यों के समान) कामसुख प्राप्त करते हैं । शेष (आगे के देवलोकों के देव) स्पर्श करने, रूप देखने, शब्द सुनने और मन द्वारा चिन्तन (स्मरण) करने से भोग सुख पा लेते हैं । परे - (इन बारह देवलोकों से आगे के देव) वैषयिक सुख, भोग अथवा प्रविचार से रहित होते हैं । विवेचन प्रवीचार का अर्थ है वेद- (स्त्री-पुरुषंवेद) जन्य पीड़ा अथवा आकुलता का प्रतिकार करना; किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से प्रवीचार का अर्थ काम- सुख प्राप्त करना भी है । प्रस्तुत सूत्र ८-९-१० में देवों की काम - परितृप्ति की विधि का संकेत किया गया है । भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क तथा सौधर्म और ईशानकल्प तक के देव मनुष्यों के समान काम-सेवन करते हैं । - तीसरें सनत्कुमार और चौथे माहेन्द्र कल्प के देव देवियों के स्पर्श से तृप्त हो जाते हैं, पाँचवें ब्रह्मदेवलोक और छठे लान्तककल्प के देव देवियों के रूप-दर्शन से तृप्त हो जाते हैं । महाशुक्र और सहस्त्रार कल्पके देव देवियों के सरस कर्णप्रिय शब्द - गायन आदि को सुनकर ही काम-सुख का अनुभव कर लेते हैं । आणत, प्राणत, आरण और अच्युत देवलोकों के देवों की वासना मन में देवियों के स्मरण मात्र से शांत हो जाती हैं । इन कल्पों के आगे के कल्पातीत देवों को काम-वासना सताती ही नहीं । प्रस्तुत वर्णन से स्पष्ट है कि ऊपर-ऊपर के स्वर्गों के देवों की वासना क्रमशः हीन होती जाती है और कल्पातीत देवों में तो काम भावना का उद्रेक होता ही नहीं, उनकी वासना एक तरह से फ्रीज (Freeze) हो जाती है । काम की इच्छा ज्यों-ज्यों तीव्र होती हैं, वह मन को आकुल व्याकुल करती हैं, यह आकुलता सुख में कमी लाती है । जबकि इच्छा की अल्पता से सुख बढ़ता है । यही कारण है कि ऊपर-ऊपर के देवों का सुख क्रमशः बढ़ता जाता है । आगम वचन - Jain Education International भवणवई दसविहा पण्णत्ता, तं जहा असुरकुमारा, नागकुमारा, सुपण्णकुमारा, विज्जुकुमारा, अग्गी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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