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________________ ऊर्ध्व लोक - देवनिकाय १६९ गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा- कायपरियारणा, फासपरियारणा, रुवपरियारणा, सद्दपरियारणा, मनपरियारणा.. भवणवासि वाणमंतर - जोतिसि सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवा कायपरियारगा, सणकुमार माहिंदेसु कप्पेसु देवा फासपरियारगा बंभलोयलंतगेसु कप्पेसु देवा रुवपरियारगा, महासुक्कसहस्सारेसु कप्पेसु देवा सद्दपरियारगा, आणय - पाणय आरण - अच्चुएसु, कप्पेसु देवा मणपरियारगा, गेवज्जग अणुत्तरोववाइया देवा अपरियारगा । प्रज्ञापना, पद ३४, प्रचारणाविषय; स्थानांग, स्थान २, उ. ४, सूत्र ११६ (भगवन् ! परिचारणा कितने प्रकार की होती है ? गौतम ! परिचारणा पाँच प्रकार की होती है- (१) काय परिचारणा, (२) स्पर्शपरिचारणा (३) रूपपरिचारणा, (४) शब्दपरिचारणा और ( ५ ) मनः परिचारणा । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म - ईशान कल्पों के देव (मनुष्यों के समान) शरीर से परिचारणा (प्रवीचार अथवा मैथुन) करते हैं । सानत्कुमार और माहेन्द्रकल्पों के देव स्पर्शमात्र से मैथुन सुख भोग लेते हैं । ब्रह्मलोक और लान्तककल्प के देवों को मैथुन का सुख रूप देखने मात्र से प्राप्त हो जाता है । महाशुक्र और सहस्त्रारकल्पों के देवों की वासना शब्द सुनकर ही तृप्त हो जाती है । आनत-प्राणत - आरण - अच्युत - इन चार स्वर्गों के देव मन में स्मरण करने मात्र से भोग सुख प्राप्त (तृप्ति अनुभव) कर लते हैं । नवग्रैवेयक तथा अनुत्तर विमानों के देव प्रवीचार (मैथुन) की इच्छा से रहित होते हैं। देवों की वासना तृप्ति — कायप्रवीचारा आ - ऐशानात् |८| शेषाः स्पर्शरूपशब्द - मनःप्रवीचारा द्वयोर्द्वयोः । ९ । परेऽप्रवीचारा : ।१०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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