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१६४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ४ : सूत्र ३-४-५
(कल्पोपपन्न देवों तक चारो निकाय के देवों के दश, आठ, पाँच और बारह उत्तर भेद हैं ।
उक्त दस आदि भेदों में इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद्य, आत्मरक्षक, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक - यह देवों की दस श्रेणियाँ हैं ।
व्यंतर तथा ज्योतिष्क देवों में त्रायस्त्रिंश तथा लोकपाल नहीं होते ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र ३,४,५ में देवों के अवान्तरभेद और उनकी श्रेणियाँ बताई गई हैं। देवों की भेद संख्या का उल्लेख उतराध्यायन सूत्र (३६/ २०३/२०९) में भी मिलता है। . ..
भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक - देवों के यह चार निकाय अथवा समूह हैं । इनमें भवनपति देव १० प्रकार के, व्यंतर ८ प्रकार के और ज्योतिष्क देव ५ प्रकार के होते हैं ।
वैमानिक देवों के मूलतः दो भेद हैं -कल्पोपपन्न और कल्पातीत । जिन स्वर्गों में इन्द्र, सामानिक आदि श्रेणियाँ पाई जाती हैं, उन्हें कल्प कहा गया हैं और उनमें उत्पन्न होने वाले देव कल्पोपपन्न कहलाते हैं । जिन विमानों में इन्द्र आदि की श्रेणियाँ नहीं पाई जातीं, उनमें उत्पन्न होने वाले देव कल्पातीत कहलाते हैं ।
इन्द्र सामानिक आदि की श्रेणियों वाले १२ स्वर्ग कल्प हैं । इसी कारण सूत्रकार ने कल्पोपपन्न देवों के १२ भेद बताये हैं । इन्द्र, सामानिक आदि जो देवों की दस श्रेणियाँ सूत्र में बताई गई हैं, वे कल्पोपन्न स्वर्गों के देवों में ही मिलती हैं ।
उन स्वर्ग विमानों के नाम हैं - (१) सौधर्म, (२) ईशान (३) सनत्कुमार (४) माहेन्द्र (५) ब्रह्मलोक (६) लांतक (७) महाशुक्र (८) सहस्त्रार (९) आनत (१०) प्राणत (११) आरण और (१२) अच्युत । इन स्वर्गों के नाम से ही इनमें उत्पन्न होने वाले देव पहचाने जाते हैं ।
दस प्रकार की देव-श्रेणियो का परिचय - इन्द्र, सामानिक आदि जो देवों की दस प्रकार की श्रेणियाँ बताई गई हैं, उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार हैं -
___ इन्द्र-इन्द्र का अर्थ स्वामी, अधिपति, ऐश्वर्यवान आदि होता है । इन्द्र पदवी से अभिषिक्त, यह देव अपने समूह के स्वामी अथवा अधि
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