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________________ ऊर्ध्वलोक-देवनिकाय १६३ से किं तं कप्पोपवण्णगा ? बारसविहा पण्णत्ता, तं जहासोहम्मा, ईसाणा, सणंकुमारा, माहिंदा, बंभलोगा, लंतया, महासुक्का, सहस्सारा, आणया, पाणया, आरणा, अचुता - प्रज्ञापना, प्रथम पद, देवाधिकार (भवनवासी देव दस प्रकार के हैं । व्यंतर आठ प्रकार के हैं।) ज्योतिष्क पाँच प्रकार के हैं । वैमानिक दो प्रकार के हैं - कल्पोपन्न और कल्पातीत । कल्पोपपन्न १२ प्रकार के होते हैं -सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, बह्मलोक, लांतक, महाशुक्र , सहस्त्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत (इन कल्पों में उत्पन्न होने वाले) देविंदा.. एवं सामाणिया... तायत्तीसगा लोगपाला परिसोववन्नगा.. अणियाहिवइ...आयरक्खा.. -स्थानांग, स्थान ३, उ. १, सू. १३४ देवकिदिवसिए.. आभिजोगए । औपपा. जीवोप सू. ४१ चउव्विहा देवाण ठिती पण्णत्ता तं. जहा-देवे णाममेगे देवसिणाते नाममेगे देवपुरोहिते नाममेगे देवपज्जलणे नाममेगे । स्थानांग, स्थान ४. उ. १, सूत्र २४८ .(देवेन्द्र, सामानिक, प्रायस्त्रिंश, लोकपाल, पारिषद् अथवा परिषदुत्पन्न, अनीकपति अथवा अनीक, आत्मरक्ष, देवकिल्विष और आभियोग्य (एक-एक के भेद हैं ।) देवों की स्थिति चार प्रकार की होती हैं -देव, देवस्नातक, देवपुरोहित और देवप्रज्वलन । __वाणमंतर जोइसियाणं तायतीसं लोगपाला नत्थि । (व्यंतर तथा ज्योतिष्कों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल नहीं होते ।) देवों के भेद, संख्या और श्रेणियां - दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ता : ।३। इन्द्रसामानिक तायस्त्रिंशपारिषद्यात्मरक्षलोकपालानीक -प्रकीः र्णकाभियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः ।४। त्रायस्त्रिशलोकपालवा व्यन्तरज्योतिष्काः । ५। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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