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ऊर्ध्वलोक तथा मध्यलोक
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सातवी नरक के नारकियों का शरीर अत्यन्त घृणास्पद, बीभत्स और दुर्गन्धयुक्त
है ।
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किन्तु इनके शरीर की अवगाहना (आकार) क्रमशः बढ़ता चला गया है । पहले नरक के नारक का मूल शरीर पौने आठ धनुष ६ अंगुल है । दूसरे नरक में यह बढ़ता चला गया है और सातवें नरक के नारक का शरीर ५०० धनुष हैं ।
विक्रिया
विक्रिया का अर्थ है मूल शरीर को छोटा-बड़ा बनाने और विभिन्न रूप बनाने की शक्ति । नारक जीवों को यह शक्ति क्षेत्र विशेष के कारण सहज ही प्राप्त होती है । वे अपने मूल शरीर का आकार मूल से दुगुना कर सकते हैं ।
वेदना नरकों मे तीन प्रकार की वेदना नारक जीवों को भोगनी पड़ती है - (१) क्षेत्रजन्य, (२) परस्परजन्य - नारकियों द्वारा एक-दूसरे को दी जाने वाली और (३) परमाधामी देवों द्वारा दी जाने वाली वेदना, पीड़ा ।
कष्ट और
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यद्यपि नारकी जीव यह सारी वेदनाएँ अपने के फलस्वरूप भोगता हैं; किन्तु निमित्त की अपेक्षा ये
(क) क्षेत्रजन्य वेदना - इस वेदना का कारण नरक - भूमि है । नरक की भूमि का स्पर्श छुरे की धार जैसा है, अत्यन्त दुर्गन्ध है, भय ही भय है
चारो
ओर I
पहली तीन नरकभूमियों में जीव को उष्ण वेदना ( अत्यधिक ताप) की वेदना भोगनी पड़ती हैं, चौथी में ताप - शीत, पाँचवीं में शीत ताप, छठी में शीत और सातवीं में घोर शीत भोगता है ।
नारकों के शीत- ताप कितने उग्र हैं इस विषय में कहा गया है - यदि वे जीव मध्यलोक के अत्यधिक ठण्डे या गर्म क्षेत्र में आ जायें तो वे अपने को बहुत सुखी मान उठें, सुख से सो जायें
नारकी जीवों को बहुत - अत्यधिक भूख-प्यास लगती है किन्तु उन्हें न खाने को अन्न का एक दाना मिलता है, न पीने को एक बूँद पानी हो । अन्य सभी प्रकार की वेदनाएँ तो हैं है ।
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पूर्वजन्म में किये पापों तीन भेद बताये गय ह ।
(ख) परस्परजन्य वेदना नारकी जीव परस्पर वैर भाव के कारण कुत्ते-बिल्ली की तरह लड़ा करते हैं, एक क्षण को भी शान्त नहीं बैठ सकते, आपस में मार-पीट करते ही रहते हैं, एक-दूसरे को अधिक से अधिक कष्ट और पीडा देते ही रहते हैं
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