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________________ १४४ तत्त्वार्थ सूत्र : अध्याय ३ : सूत्र ३-४-५ अशुभतर शब्द यहाँ द्वि-संधानक है । प्रथम तो नरकों की रचना के लिए और दूसरे नारकी जीवों की लेश्या आदि के विशेषण रूप में । नरकों की रचना उत्तरोत्तर अशुभ और अशुभतर होती चली गई है । प्रथम नरकभूमि के पुद्गल स्पर्श, वर्ण, रस, गंध आदि में जितने अशुभ हैं, दूसरी नरक भूमि के पुद्गल उससे भी अधिक अशुभ हैं । इसी क्रम से सातवीं नरक भूमि के पुद्गल सर्वाधिक अशुभ हैं । T यही बात नरकों के आकार, संस्थान आदि के बारे में हैं । - लेश्या योग और कषाय रंजित परिणामों को लेश्या कहा जाता I है । जैसा कि आगमोक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि नारक जीवों में कृष्ण नील, कापोत -- यह तीन लेश्या होती हैं । इनमें कापोत से अधिक अशुभ नील लेश्या और कृष्णलेश्या अशुभतम है । -- I पहली रत्नप्रभा नरकभूमि के नारकी जीवों की कापोत लेश्या है । दूसरी नरक शर्कराप्रभा के नारकियों की है तो कापोतलेश्या ही किन्तु प्रथम नरक के नारकियों की अपेक्षा अधिक अशुभ हैं, इनके परिणाम अधिक संक्लिष्ट रहते हैं । इसी प्रकार बालकाप्रभा के नारकियों में कापोत और नील दोनों लेश्या हैं, पंकप्रभा के नारिकयों में नील लेश्या, धूम्रप्रभा के नारकियों की नील और कृष्णलेश्या, तमःप्रभा के नारकियों की कृष्णलेश्या और महातमः प्रभा के नारकियों की महाकृष्ण लेश्या है । कापोत, नील और कृष्ण लेश्या अशुभ, अशुभतर और अशुभतम हैं। ये अधिकाधिक संक्लेशकारी है । परिणाम - पुद्गल परमाणु जिनसे नरक ( नरक बिलों) की रचना हुई है, वे तो अशुभतर, अशुभतम हैं ही किन्तु उनमें रहने वाले जीवों (नारकियों) के आत्म-परिणाम भी पहली से सातवीं तक अशुभतर होते चले गये हैं । पहली नरक के नारकियों की अपेक्षा दूसरी नरक के नारकियों के भाव (परिणाम) अधिक अशुभ हैं । यही क्रम सातवें नरक तक चलता गया है और सातवी नरक के नारकियों के भाव घोर अशुभ हैं । Jain Education International देह (शरीर ) नारकियों के शरीर भी क्रमशः अधिक बीभस्त, घृणास्पद, भयावने होते चले गये हैं । प्रथम नरक के नारकी के शरीर की अपेक्षा दूसरे नरक के नारकी का शरीर अधिक बीभत्स है । इसी क्रम से - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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