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जीव-विचारणा १२९ आगमों में 'अपवर्तन' का 'उपक्रम' नाम मिलता है । वहाँ सोपक्रम (अपवर्तनीय) निरुपक्रम (अनपवर्तनीय) शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हैं ।
__यह अपवर्तन अनेक निमित्त कारणों से हो सकता है । इन निमित्तों को उपक्रम भी कहा जाता है । ठाणांग सूत्र (७/५६१) में आयुभेद (आयुभंग) के सात कारण बताये गये हैं -
१. अध्यवसाय - तीव्र राग-द्वेष अथवा भय से २. निमित्त - दण्ड, शस्त्र आदि द्वारा
३. आहार - अत्यधिक आहार से अथवा आहार के अभाव से, जल आदि न मिलने कारण अर्थात् तृषा (प्यास) से
४. वेदना - आंख, उदर आदि अंगों की तीव्र पीड़ा से
५. पराघात - कुए आदि में गिरना, तालाब-नदी-समद्र आदि में डूब जाना, पर्वत आदि किसी ऊँचे स्थान से गिर जाना, सीढ़ियों से फिसल जाना ।
. ६. स्पर्श - बिच्छू, सर्प आदि किसी विषैले कीड़े के दंश से अथवा स्वयं ही विष पी लेना, नींद की गोलियां अधिक खा लेना या कीटनाशक रसायनो, गोलियों को खा लेना ।
७. श्वासोच्छ्वास रुकने से - फांसी आदि खा लेना, किसी अन्य द्वारा गला दबा दिया जाना आदि ।
आधुनिक युग में दया-मृत्यु (Mercy Killing) के रूप में अकाल मृत्यु का एक नया कारण पनपने लगा है। इस पर चिकित्सा विज्ञानियों द्वारा बल दिया जा रहा है । इसका अभिप्राय है जब किसी प्राणी की वेदना-पीड़ा, असह्य हो जाये और उसका चिकित्सा विज्ञान में कोई उपचार न हो तो उसे विष का इंजेक्शंन देकर पीड़ामुक्त कर देना, मार देना । अध्यात्म दृष्टि से यह दया-मृत्यु नहीं अकाल मृत्यु ही है ।
___कर्मभूमियों में ,अर्थात् आधुनिक विश्व में उत्पन्न होने वाले जीवों को सामान्यतया ऐसे निमित्त मिलते ही रहते हैं, जिनसे आयु के कम होने अथवा घटने की संभावना निहित होती है ।
सामान्य जिज्ञासा यह है कि यदि किसी मनुष्य अथवा पशु की इन निमित्तो से मृत्यु हो गई, शरीर छूट गया तो क्या वह अपनी शेष आयु को अगले जन्म में भोगेगा ?
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