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________________ १२८ तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ : सूत्र ५२ . आगम वचन - दो अहाउयं पालेंति देवाणं चेव णेरइयाणं चेव । - स्थानांग, स्थान २, उ. ३, सूत्र ८५ देवा नेरइयावि य असंखवासाउया य तिरमणुआ । उत्तमपुरिसा य तहा चरमसरीरा य निरुवक्कमा ॥ - ठाणांगवृत्ति (दो की आयु पूर्ण होती है - देवों की और नारकियों की । देव, नारकी, भोगभूमि वाले तिर्यंच और मनुष्य उत्तम पुरुष और चरमशरीरियों की बँधी हुई आयु निरुपक्रम होती है ।) आयु के प्रकार - औपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ।५२। उपपातजन्म वाले, चरमशरीरी, उत्तमपुरुष तथा असंख्यातवर्ष की आयु वाले जीवों की आयु अनपवर्तनीय होती है । विवेचन - देव और नारकी (क्योंकि इनका उपपात जन्म ही होता है,) चमरशरीरी अर्थात् उसी भव से मोक्ष जाने वाले, उत्तम पुरुष) (चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव) और असंख्यात वर्ष की आयु वालेजीवों की आयु बीच में नहीं टूटती, घटती नहीं, वे अपनी बंधी हुई पूरी आयु का भोग करते हैं, उनकी अकाल मृत्यु नहीं होती । असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य और तिर्यंच होते हैं । यह भोग भूमियो तथा अन्तरद्वीपों में निवास करते हैं । वहां सतत भोगयुग रहता है, अतः इनकी आयु भी अनपवर्तनीय होती है। आयु के दो भेद - आयु के दो भेद हैं - १. अनपवर्तनीय और २. अपवर्तनीय । अपवर्तन का अभिप्राय है कम हो जाना, अतः ऐसी आयु जो किसी निमित्त को पाकर कम हो सके वह अपवर्तनीय कहलाती है । इसके विपरीत जो आयु किसी भी कारण से कम न हो सके वह अनपवर्तनीय कहलाती है । सूत्र में अनपवर्तनीय आयु वाले जीवों का निर्देश कर दिया गया है। अतः परिशेष न्याय से यह स्पष्ट है कि सूत्रोक्त जीवों के अतिरिक्त अन्य जीवों की आयु अपवर्तनीय होती है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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