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________________ जीव-विचारणा १०५ ( जिसमें ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श करने की योग्यता हो, उसे संज्ञी कहते हैं । जिसमें ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श की योग्यता न हो, उसे असंज्ञी कहते हैं ।) मन सहित जीवों का लक्षण --- संज्ञिनः समनस्काः । २५। संज्ञी जीव मनसहित होते हैं । विवेचन - कौन जीव मनसहित है और कौन जीव मनरहित है, इसका निर्णय संज्ञा से किया जाता है । साथ ही दूसरा निर्णायक बिन्दु है द्रव्य मन । यहाँ पहले द्रव्य - मन और उसकी रचना - प्रक्रिया समझ लेना आवश्यक ! जैनदर्शन में 'पर्याप्ति नाम' का नामकर्म का एक भेद है । पर्याप्ति आत्मा की एक विशिष्ट शक्ति की परिपूर्णता है जिसके द्वारा आत्मा आहार, शरीर आदि के योग्य पुद्गलो को ग्रहण करके उन्हें आहार आदि के रूप में परिणत करता हैं । यह पर्याप्ति शक्ति पुद्गलो के उपचय से प्राप्त होती ह। पर्याप्तियाँ ६ हैं (१) आहार (२) शरीर (३) इन्द्रिय (४) श्वासोच्छ्वास, (५) भाषा और (६) मनःपर्याप्ति इनमें से प्रारम्भ की चार आहार से श्वासोछ्वास तक तो एकेन्द्रिय जीवों में होती हैं और दो इन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय वाले जीवों में भाषा सहित ५ पर्याप्ति होती है । एक इन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक के जीवों में मनःपर्याप्ति होती ही नहीं, अतः द्रव्यमन की रचना ही नहीं होती, इसीलिए व अमनस्क अथवा मन रहित होते हैं । इसके अतिरिक्त किसी-किसी तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव में भी मन नहीं होता, तो ऐसे तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव भी असंज्ञी अथवा मनरहित होते हैं इसका अभिप्राय यह है कि पुद्गल द्रव्य रचना अथवा द्रव्यमन का आधार तो मनःपर्याप्ति है, किन्तु इसका विमर्श रूप वैचारिक पक्ष संज्ञा है । वैचारिक पक्ष की अपेक्षा ही सूत्र में संज्ञी को समनस्क अथवा मन वाला कहा है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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