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________________ १०४ तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ : सूत्रं २३-२४ वनस्पतिकाय तक के जीवों के एक इन्द्रिय होती हैं । कृमि (कीड़ा-लट), चीटी, भ्रमर, मनुष्य में क्रम से एक-एक इन्द्रिय अधिक होती है। विवेचन - वनस्पतिकाय तक का अर्थ है - पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक । अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक जीवों के एक इन्द्रिय होती है । यह एक इन्द्रिय गणना क्रम के अनुसार प्रथमस्पर्शन नाम की इन्द्रिय है ।। पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक के सब जीवों में मात्र एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है, इसीलिए यह सभी एकेन्द्रिय जीव कहलाते हैं । भेद विविक्षा से इनके सूक्ष्म और बादर दो भेद होते हैं तथा वनस्पतिकाय के प्रत्येकशरीरी और साधारणशरीरी ये दो भेद और होते हैं सूक्ष्म का अभिप्राय है अत्यन्त छोटा; जो जीव न तो स्वयं किसी को बाधा पहुंचाते हैं और न अन्य जीव इन्हें कोई बाधा पहुंचा सकते हैं; किन्तु बादर जीव बाधा पहुंचाते भी हैं और अन्यों से बाधित होते भी हैं । बादर जीवों के शरीर चक्षु ग्राह्य होते हैं । ' प्रत्येकशरीर का अभिप्राय है जिस शरीर में एक ही जीव रहे और एक साधारण शरीर में वनस्पति के अनन्त जीव रहते हैं, इसी अपेक्षा से प्याज आदि वनस्पतियाँ अनन्तकायिक पिण्ड कहलाती हैं ।। लट के (स्पर्शन, रसना) दो इन्द्रियाँ हैं, चींटी के तीन इन्द्रियाँ (स्पर्शन, रसना, घ्राण), भ्रमर के चार (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु) और मनुष्य के पाँचों इन्द्रिया (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र) हैं अतः यह जीव क्रमशः बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय होते हैं । मनुष्य के अतिरिक्त समस्त नारक और देव भी पंचेन्द्रिय ही होते ह। तिर्यचों मे गाय, बैल, घोड़ा, हाथी आदि भी पंचेन्द्रिय व जीव हैं, इसी प्रकार चिड़िया, कबूतर आदि आकाश में उड़ने वाले (खेचर) पक्षी तथा मगर, मत्स्य आदि जलचर जीव भी पंचेन्द्रिय है । आगम वचन - जस्स णं अत्थि ईहा, अवोहो, मग्गणा, गवेसणा, चिंता वीमंसा से णं सण्णीति लब्भइ । जस्स णं नत्थि ईहा अवोहो मग्गणा गवेसणा चिंता वीमंसा णं असन्नीति लम्बइ । - नन्दीसूत्र, सूत्र ४० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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