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९६ तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ : सूत्र १३ - १४
बादर त्रस जीव चार प्रकार के कहे गये हैं (२) त्रीन्द्रिय (३) चतुरिन्द्रिय और (४) पंचेन्द्रिय) त्रस और स्थावर जीवों के भेद
पृथिव्यप्तेजो वायु वनस्पतयः स्थावरा' : ।१३। द्वीन्द्रियादयस्त्रसा:
।१४ ।
(१) पृथिवीकायिक (२) अप् (जल) कायिक (३) तेजस्कायिक (४) वायुकायिक और (५) वनस्पतिकायिक यह पाँचो प्रकार के जीव स्थावर
हैं ।
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द्वीन्द्रियादिक (१) दो इन्द्रिय वाले, (२) तीन इंन्द्रिय वाले (३) चार इन्द्रिय वाले और (४) पाँच इन्द्रिय वाले - यह चारों प्रकार के जीव त्रस ह । विवेचन त्रस और स्थावर के लक्षण सूत्र १२ की विवेचना में बताये जा चुके हैं और प्रस्तुत दोनों सूत्रों में त्रसकायिक और स्थावरकायिक जीवों के भेद बताये गये हैं ।
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(१) द्वीन्द्रिय
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त्रस का अर्थ गति या गमन करने वाले जीवों से है और स्थावर का अभिप्राय एक स्थान पर स्थिर रहने वाले जीवों से जाना जाता हैं; किन्तु यह व्याख्या स्थूल दृष्टि से हैं ।
यदि यह कहा जाय कि अपनी हित बुद्धि से गमन करना त्रसत्व है तो वृक्षों में भी ऐसी गति देखी जाती है । यदि जड़ के मार्ग में भूमि के अन्दर कोई पत्थर आ जाता है तो वे मुड़ जाती है; उसी ओर गति करती हैं, जिधर भूमि मुलायम हो और नमी आदि इन्हें मिलती रहें ।
१- २. कुछ प्रतियों में यह दोनों सूत्र इस प्रकार भी मिलते हैं - 'पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः ।१३। तथा 'तेजोवायु द्वीन्द्रियादश्च त्रसाः ।१४।' अर्थात् इन सूत्रों में तेज (अग्नि) कायिक और वायुकायिक जीवों की गणना त्रसकाय जीवों में की गई हैं . किन्तु हमने उक्त मूल पाठ स्वीकार किया जिसमें अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों की गणना स्थावरकाय मे की गई है । इसके दो कारण हैं प्रथम तो यह आगमं के अनुसार है । (स्थानांग और जीवाभिगम-दोनों आगमों में पाँच प्रकार के स्थावर और चार प्रकार के त्रसों का वर्णन मिलता है । दूसरे तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार सिद्धसेनगणी ने स्वयं स्वीकार किया है कि स्थावरनामकर्म के उदय के कारण 'पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः सर्वे स्थावरा एव' यानी यह सभी स्थावर ही हैं ।
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