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________________ जीव-विचारणा ९५ विवेचन - त्रस और स्थावर शब्दों का यदि निरुक्त की दृष्टि से अर्थ किया जाय तो चलने-फिरने वाले जीव त्रस हैं और एक स्थान पर स्थिर रहने वाले स्थावर । जैसा कि कहा गया है - त्रस्यतीति त्रसाः, स्थानशीला: स्थावराः । इन दोनों त्रस और स्थावर शब्दों का अनुभूति की अपेक्षा से भी अर्थ किया जाता है । इस विषय में सिद्धसेनगणी ने इस सूत्र की टीका में कहा है परिस्पष्टसुखदुःखेच्छाद्वेषादिलिंगास्त्रसनामकर्मोदयात् साः । अपरिस्फुटसुखादिलिंगाः स्थावरनामकर्मोदयात् स्थावराः । -त्रसनामकर्म के उदय से जिन जीवों के सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष आदि स्पष्ट दिखाई देते हों, वे त्रस जीव हैं और स्थावर नामकर्म के उदेय से जिन जीवों के यह भाव (चिन्ह-सुख-दुःख आदि) स्पष्ट न दिखाई देते हों, वे जीव स्थावर हैं । जो जीव एक स्थान पर अवस्थित रहते हैं तथा किसी भी कायिक चेष्टा अथवा संकेत द्वारा सुख-दुःख विरोध को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर पाते वे स्थावर हैं । इसके विपरीत त्रस जीव चलते-फिरते हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान को गमन करते हैं तथा सुख-दुखः विरोध आदि को स्पष्ट अभिव्यक्त करते आगम वचन -. पंचथावरकाया पण्णत्ता इंदे थावरकाये (पुढवीथावरकाये) बंभे थावरकाए (आऊथावरकाए) सिप्पेथावरकाए (तेऊतावरकाए) सम्मती थावरकाए (वाऊथावरकाए) पायावच्चे थावरकाए (वणस्सइथावरकाए) । स्थानांग, स्थान ५, उ. १, सूत्र ३९४ ओराला तसा पाणा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-बेइंदिया, तेइंदिया चउरिंदिया पंचेन्दिया । - जीवाभिगम, प्रतिपत्ति १, सूत्र २७ (स्थावरकाय के पाँच भेद होते हैं - (१) पृथ्वीस्थावरकाय (२) जलस्थावरकाय (३) अग्निस्थावरकाय (४) वायुस्थावरकाय और (५) वनस्पतिस्थावरकाय । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004098
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni, Shreechand Surana
PublisherKamla Sadhanodaya Trust
Publication Year2005
Total Pages504
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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