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८२ तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २ : सूत्र ४ क्षायिक भावों के भेद -
ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ।।। . ( १. ज्ञान, २. दर्शन, ३. दान, ४. लाभ, ५. भोग, ६. उपभोग, ७. वीर्य-यह सात भाव तथा 'च' शब्द से संकेतित पूर्व सूत्र में उक्त ८. सम्यक्त्व और, ९. चारित्र-यह नौ क्षायिक भाव हैं)
विवेचन - क्षायिक भाव सदा ही प्रतिपक्षी अथवा प्रतिबन्धक कर्म के पूर्णतया निःशेष अर्थात् क्षय होने पर होते हैं ।
इस अपेक्षा से यहां ज्ञान, दर्शन आदि सभी से पहले क्षायिक शब्द का उपयोग कर लेना चाहिए, जैसे क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन आदि ।
. सूत्र में कहे हुए आदि के सात भाव क्षायिक ज्ञान से लेकर क्षायिक वीर्य तक जीव को तेरहवें गुणस्थान में प्राप्त होते हैं, तब जबकि वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्म का पूर्णरूप से क्षय कर चुका होता है ।।
क्षायिक ज्ञान और क्षायिक दर्शन को केवलज्ञान तथा केवलदर्शन भी कहा जाता है । आगम पाठ में भी यही कहा गया है ।
किन्तु क्षायिक सम्यक्त्व की उपलब्धि दर्शनसप्तक के सम्पूर्ण क्षय से होती है । अतः क्षायिक सम्यक्त्व चौथे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में हो सकता है ।
क्षायिक चारित्र जीव के साथ लगे हुए चारित्रमोहनीय कर्म के सम्पूर्ण क्षय से ही उपलब्ध होता है, अतः यह बारहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय (अन्तिम क्षण से एक क्षण पहले) में ही प्राप्त हो पाता है, आगे तेरहवें गुणस्थान में तो रहता ही है । इसी(क्षायिक चारित्र को यथाख्यात अथवा वीतराग चारित्र भी कहा जाता है)
क्षायिक दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य-इन पांचो- की उपलब्धि अन्तराय कर्म के क्षय से होती है । यहां वीर्य का अभिप्राय जीव की स्वयं की शक्ति से है ।
___ सम्यक्त्व और चारित्र चूंकि औपशमिक भी होते हैं, और क्षायिक भी; इसीलिए सूत्र में 'च' शब्द से इन्हें संकेतित कर दिया गया है । पूर्व सूत्र में यह औपशमिक भाव के अन्तर्गत आये हैं और इस सूत्र में इनकी संयोजना क्षायिक भावों के अन्तर्गत की गई है ।
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