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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व ही भोजन करना चाहिए । भूख का संबंध हमारी आदतों पर निर्भर करता है | जैसी हम आदत डालते हैं, उस समय हमें भूख लगने लगती है, अतः हमें भोजन करने की ऐसी आदत डालना चाहिए, जब आमाशय, पैन्क्रियाज अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय हों । प्रातःकाल सूर्योदय के लगभग एक-दो घंटे पश्चात् आमाशय एवं आमाशय के सहयोगी पूरक अंग, अर्थात् पेन्क्रियाज आदि प्रकृति से अधिक प्राण - ऊर्जा मिलने से अधिक सक्रिय होते हैं, अतः मुख्य भोजन का सबसे श्रेष्ठ समय इसके बाद ही होना चाहिए। इस प्रकार, सूर्यास्त के बाद आमाशय एवं पेन्क्रियाज प्रकृति में प्राण ऊर्जा का प्रवाह कम होने से निष्क्रिय हो जाते हैं, उस समय किए गए आहार का पाचन सरलता से नहीं होता है, अतः उस समय भोजन नहीं करना चाहिए । 92 118 जैनदर्शन में रात्रिभोजन - निषेध की मान्यता है। रात्रि में भोजन करने से अनेक सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा होती है, क्योंकि मनुष्य उन छोटे-छोटे प्राणियों को देख नहीं पाता। इसके अलावा, छोटे-छोटे कुछ जीव ऐसे भी होते हैं, जो रोशनी देखकर स्वतः दीपक आदि की लौ की ओर आकर्षित होते हैं तथा जलकर भस्म हो जाते हैं। इस प्रकार, रात्रि में भोजन करना हिंसा को बढ़ावा देना है। 19 दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि साधु सूर्यास्त के बाद तथा सूर्योदय के पहले अशनादि चारों प्रकार के आहारों को मन से भी त्याग दे, यानी इनके उपभोग की इच्छा मन से भी न करे । उत्तराध्ययनसूत्र में श्रमण - जीवन के कठोर आचार का निरूपण करते हुए स्पष्ट बताया गया है कि प्राणातिपात, विरति आदि पाँच सर्वविरतियों के साथ ही रात्रिभोजन का त्याग करना चाहिए । इस व्रत का पालन भी महाव्रतों की तरह ही दृढ़ता से किया जाता है। रात्रिभोजन-त्याग को दशवैकालिक की अगस्त्यसिंह चूर्णि 22 में मूलगुणों की रक्षा का हेतु बताया गया है, इसलिए रात्रिभोजन - विरमण को मूलगुणों के 120 121 118 119 से वारिया इत्थि सरायभत्तं दशवैकालिकसूत्र - 6 /23-26 120 अत्थंगयम्मि आइच्चे पुरत्थ य अणुग्गए । आहारमाइयं सव्वं मणसा वि न पत्थए । । 127 21 सूत्रकृतांगसूत्र, मधुकरमुनि, 116 / 379 Jain Education International वही 8/28 उत्तराध्ययनसूत्र, अ. 19/31 किं रातीभोयणं मूलगुणः उत्तरगुण ? उत्तरगुण एवायं । तद्यपि सव्वमूलगुणरक्खा हेतुत्ति मूलगुण सम्भूतं पठिज्जति ।। For Personal & Private Use Only अगस्त्यचूर्णि, पृ. 65 www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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