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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व जिन पुद्गलों को वे प्रक्षेपाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उनके असंख्यातवें भाग का ही आहार कर पाते हैं। उनमें से सहस्त्रभाग उनके द्वारा बिना स्पर्श किए, आस्वादन किए यों ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं, क्योंकि उनमें से कोई पुद्गल अतिस्थूल (बड़ा) होने के कारण और कोई अतिसूक्ष्म होने के कारण उनका आस्वाद नहीं ले पाते हैं। पंचेन्द्रिय, तिर्यंच, मनुष्य, ज्योतिष्कदेव, वाणव्यन्तर देवों में आहार - पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों का आहार त्रीन्द्रिय जीवों के समान ही होता है, विशेष यह है कि आहार करने के पश्चात् भी उन्हें जघन्य अन्तर्मुहूर्त से और उत्कृष्ट से दो दिन छोड़कर आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है। मनुष्यों की आहार सम्बन्धी व्यक्तव्यता भी इसी प्रकार ही है, विशेष यह है कि उनकी आभोगनिवर्तित आहार अभिलाषा जघन्य अन्तर्मुहूर्त में होती है और उत्कृष्ट तीन दिन व्यतीत होने पर उत्पन्न होती है। ज्योतिष्क देवों में यह आहार की अभिलाषा जघन्य और उत्कृष्ट से एक दिन छोड़कर होती है। वैमानिक देवों की व्यक्तव्यता ज्योतिष्क देवों के समान समझना चाहिए, किन्तु विशेष रूप से आभोगनिवर्तित आहार की इच्छा जघन्य से एक दिन छोड़कर और उत्कृष्टतः तैंतीस हजार वर्षों में होती है। खाद्य-अखाद्य–विवेक - ... आहार सभी प्राणियों एवं मनुष्य के जीवन के अस्तित्व के लिए आवश्यक है, किन्तु मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है, इसलिए उसे सोचना होगा कि वह क्या खाए और क्या नहीं खाए ? जिस प्रकार आहार के कम मिलने पर शरीर शीघ्र ही दुर्बल, क्षीण और कृश होने लगता है, उसी प्रकार आवश्यकता से अधिक, अभक्ष्य एवं जंकफूड खाने से शरीर अनेक रोगों से ग्रसित भी हो जाता है। प्रत्येक मनुष्य के लिए उसके शारीरिक-संगठन, दैनिक-श्रम और कार्यभिन्नता के अनुसार आहार की भी भिन्न-भिन्न परिमाण में आवश्यकता होती है। हमारा भोजन स्वाद के लिए न होकर स्वास्थ्य के लिए होना चाहिए। महात्मा गांधी कहते थे –'यदि हम आवश्यकता से अधिक खाते हैं, तो वह चोरी का खाते हैं।' आयुर्वेद-शास्त्र में क्षुधा को एक स्वाभाविक रोग माना गया है। आहार इस रोग की औषधि है, परन्तु लोगों ने उसे औषध न मानकर रसनेन्द्रिय की तृप्ति का साधन बना रखा है। भूख लगे चाहे न लगे, लोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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