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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
राजा सम्प्रति, जो पूर्व भव में भिखारी था, तीन दिन तक घर-घर भोजन की मांग करता रहा, लेकिन कोई उसे आहार नहीं दे रहा था, क्षुधावेदनीय-कर्म का तीव्र उदय था। उस समय मार्ग में दो जैन श्रमण साधु भिक्षार्थ गवेषणा करते हुए दिखाई दिए। श्रावक ने भावपूर्वक साधु महाराज को लड्डू बहराये, जिसे उस भिखारी ने देख लिया और साधु भगवंत से लड्डू की मांग करने लगा। जैनाचार के पालक मुनि ने कहा - "हमारे गुरु महाराज के पास चलो, जैसी वह आज्ञा देंगे, वैसा हम करेंगे। साधुओं ने उपाश्रय में विराजित गुरु महाराज को भिखारी का पूरा दृष्टान्त सुनाया, जिसे सुनकर गुरु महाराज को बड़ा दुःख हुआ । गुरु महाराज ने कहा - "तुम्हें लड्डू ही खाना है, तो तुमको हमारे जैसा वेष धारण करना होगा, अर्थात् जैनधर्म में दीक्षित होना पड़ेगा ।" क्षुधावेदनीय - कर्म से ग्रस्त भिखारी ने कहा - "भूख मिटाने के लिए मैं दीक्षा भी ले लूंगा ।" दीक्षा के बाद सारे लड्डू नए मुनि के सामने रख दिए गए। लड्डू सामने आते ही मुनि ने खाना प्रारम्भ कर दिया तथा भरपेट लड्डू खा लिए, परन्तु अर्द्धरात्रि में उसे तीव्र पेट दर्द हुआ और उसने समभाव में देह का त्याग किया। कालान्तर में वही सम्प्रति राजा बना। यह है क्षुधावेदनीय का खेल ।
3. आहार - संबंधी चर्चा को सुनकर
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जब आहार-संबंधी चर्चा करते हैं, तो जन्म-जन्मान्तर से बैठे आहार के संस्कार जाग्रत हो जाते हैं, जैसे इमली का नाम लेते ही मुंह में पानी स्वतः ही आने लगता है, रसगुल्ला, जलेबी, कचौरी, समोसा, चाट, चटपटे नमकीन आदि की बातें सुनकर उन्हें खाने की इच्छा जाग्रत हो जाती है और वह तब तक बनी रहती है, जब तक कि उस वस्तु को ग्रहण न कर लिया जाए। भक्तकथा (आहार - सम्बन्धी चर्चा ) करने में सभी को बहुत रस आता है। सुबह से शाम तक, क्या बनाएं और क्या खाएं ? इस चर्चा में ही बहुत सी महिलाओं का समय यूं ही व्यतीत हो जाता है । वर्त्तमान युग में चौपाटी, रेस्टोरेन्ट, होटल आदि में बनने वाले किसी व्यंजन की विशेषता और उसके कारण वहाँ होने वाली भीड़ की चर्चा सुनकर ही व्यक्ति वहाँ पहुँच जाता है, क्योंकि चर्चा के माध्यम से उसे यह ज्ञात हो जाता है कि अमुक होटल पर बहुत स्वादिष्ट या जायकेदार वस्तुएँ मिलती हैं। आहार - संज्ञा के उद्दीपन के कारण ही वहाँ लोगों की भीड़ उमड़ने लगती है।
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