________________
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
इस प्रकार, आहार-संज्ञा शरीर–संरक्षण एवं शरीर निर्माण के लिए आवश्यक है। शुद्ध आहार ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब होता है, इसलिए आहार जितना सात्त्विक एवं शुद्ध होगा, व्यक्ति का शरीर भी उतना ही स्वस्थ्य एवं पुष्ट होगा।
आहार-संज्ञा के उद्भव के कारण
जीव की सबसे प्रथम अपेक्षा है - जिजीविषा, अर्थात जीवन जीने की प्रबल इच्छा, जो जीवन के अंत तक रहती है। इसी से वह जीने के प्रथम साधन आहार की ओर दौड़ता है। अनादिकाल से चली आ रही इस प्रवृत्ति को ही आहार-संज्ञा कहते हैं। आहार शब्द (आ + हृ + धञ्) 'आ' उपसर्ग सहित 'हृञ' हरणे धातु से बना है, जिसका अर्थ है -लाना, निकट लाना, हरण करना या ग्रहण करना, अतः. अन्तरंग में क्षुधावेदनीय-कर्म के उदय या उदीरणा से तथा बहिरंग में आहार को देखने से, या चित्तवृत्ति उस ओर जाने से, अथवा पेट खाली होने से जीव को जो आहार ग्रहण करने की इच्छा होती है, उसे ही आहार-संज्ञा कहते हैं। आहार-संज्ञा से तात्पर्य प्राणियों के भीतर निरंतर भोजन ग्रहण करने की या आहार लेने की मांग बनी रहने से है। आहार-संज्ञा बाहरी पोषक तत्त्वों को स्वयं के भीतर डाल लेने की वृत्ति है। यह वृत्ति हर प्राणी में होती है और समय-समय पर प्रकट होती है, शेष समय में सुप्तप्राय रहती है।
स्थानांगसूत्र" में आहार-संज्ञा की उत्पत्ति के निम्न चार कारण बताए हैं -
1. जठराग्नि द्वारा पूर्व गृहीत आहार का पाचन होने पर, अर्थात् पेट ___ के खाली हो जाने से। 2. क्षुधावेदनीय-कर्म के उदय से। 3. आहार–सम्बन्धी चर्चा के श्रवणानन्तर उत्पन्न मति से।
76 आहारदसणेण य तस्तुवजोगेण ओमकोढाए।
सादिदरूदीरणाए हवदि हु आहार सण्णा हु।। -गोम्मटसार, जीवकाण्ड 134 चउहि ठाणेहि आहार सण्णा समुप्पज्जइ, तं जहा - (1) ओमकोट्ट्याए,
(2) छुहावेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएवं. (3) मईए
(4) तदोवओगेणं। स्थानांगसूत्र, अ. 4/4/356
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org