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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व अधर्म या पाप होता है। यह विचार वैज्ञानिक-चिन्तन से बाहर की वस्तु है। 2. धार्मिक अथवा नैतिक-दृष्टि - धर्म एवं नीति के क्षेत्र में मात्र यह नहीं देखा जाता है कि कौन-सा भोजन हमें कितनी जीवनी शक्ति प्रदान करता है, बल्कि यह विचार किया जाता है कि कौन–सा खाद्य-पदार्थ हमारे मनोभाव को सात्विक या तामस बनाता है। जो वस्तुएँ हमारे जीवन में सात्विक भावनाओं को जाग्रत करती हैं, या जो दुर्वासनाओं एवं अनैतिक-इच्छाओं को जगाने में सहायक नहीं बनतीं, वे तो ग्राह्य समझी जाती हैं और जिनसे हमारी कुप्रवृत्तियाँ जाग उठती हैं, वे वस्तुएँ त्याज्य या अग्राह्य मानी जाती हैं। धार्मिक-दृष्टि से वे पदार्थ ही ग्राह्य माने जाते हैं, जिनसे हमें शारीरिक- बल तो मिलता ही है, साथ ही सद्भावनाएँ भी दृढ़ होती हैं। मांस, मछली, अंडा, मदिरा आदि को ग्रहण करने से चाहे हमें शारीरिक-शक्ति मिलती है, लेकिन ये वस्तुएँ हमारी वासना को जाग्रत कर देती हैं, जिसके परिणामस्वरूप हम अनैतिक कार्यों की ओर आकृष्ट होते हैं, अतएव इन वस्तुओं को धार्मिक अथवा नैतिक-दृष्टि से बिलकुल ही त्याज्य समझा गया है। इसी प्रकार, जिन पदार्थों को ग्रहण करने से जीव-हिंसा अधिक होती है, उन्हें भी धार्मिक-दृष्टि से अग्राह्य माना गया है। जैन- विचारकों ने इसी बात पर अधिक बल दिया है। 3. दार्शनिक-दृष्टि - शरीर-संरक्षण के लिए आहार की उपादेयता का वर्णन करते हुए सांख्य- दार्शनिक कहते हैं कि प्रकृति और पुरुष के संयोग से जगत् का विकास हुआ है। प्रकृति के तीन गुण माने गए हैं – सत्व, रज तथा तम। प्रत्येक वस्तु में ये तीन गुण मौलिक रूप से पाए जाते हैं, परन्तु प्रत्येक वस्तु में किसी गुण की अधिकता, तो किसी गुण की न्यूनता भी होती है तथा उसी के आधार पर उस वस्तु की कोटि निर्धारित होती है। इसी आधार पर भोज्य पदार्थ को भी तीन श्रेणियों में विभक्त किया जाता हैसात्त्विक, राजसी एवं तामसी। सामान्यतया; अन्न, फल आदि का सात्त्विक भोजन ग्रहण करने से मनुष्य की सात्त्विक प्रवृत्ति बढ़ती है; घी, मिष्ठान्न, पकवान आदि अति पौष्टिक भोजन ग्रहण करने से मनुष्य में राजसी-प्रवृत्ति बलवती होती है एवं मांस, मदिरा, बासी पदार्थ आदि तामसी-वस्तुओं को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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