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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व रहता है, इस प्रकार, आंतरिक दहन - क्रिया से जो ताप उत्पन्न होता है, उसका ही दूसरा रूप शक्ति है, जो हमें कार्य करने में समर्थ बनाती है। इस प्रकार, शरीर में जाकर आहार चार कार्य करता है 1. शारीरिक - हास की पूर्ति, 3. शरीर की वृद्धि, 1. वैज्ञानिक - दृष्टि से, 3. दार्शनिक - दृष्टि से, 2. शारीरिक - ताप की वृद्धि, 4. शक्ति या बल की उत्पत्ति । आहार ये चार कार्य करता है और इन्हीं कार्यों के लिए आहार की आवश्यकता होती है । 2. शरीर - संरक्षण के लिए शरीर-संरक्षण के लिए आहार अति आवश्यक है। शरीर में होने वाले परिवर्तन, ताकत, शक्ति, पुष्टता एवं बल का द्योतक आहार है। आहार के कारण ही मनुष्य का शरीर सब परिस्थितियों में स्वयं का संरक्षण कर सकता है। जो व्यक्ति स्वस्थ है, संयमित है, इसका मूल कारण एक यह भी है कि वह आहार के प्रति सजग है। यही कारण है कि शरीर के संरक्षण के लिए आहार को विद्वानों ने विभिन्न दृष्टियों से विवेचित किया है Jain Education International 2. धार्मिक अथवा नैतिक - दृष्टि से, 4. देश और काल की दृष्टि से । 59 1. वैज्ञानिक दृष्टि - वैज्ञानिक दृष्टि स्वास्थ्य की दृष्टि है। वैज्ञानिक जब आहार-सम्बन्धी विवेचन प्रस्तुत करते हैं, तो उनका उद्देश्य मात्र इतना ही होता है कि कौन-सी वस्तु कितनी मात्रा में शक्ति प्रदान करती है। इस बात को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिकों ने आहार की पौष्टिकता का ही विचार किया है। शरीर - पोषण के लिए मांसाहारी अंडे का सेवन करते हैं, तो शाकाहारी दूध का । वे मात्र यह मानते हैं कि जिन वस्तुओं से खाने वाले को शारीरिक बल मिलता है, वे सभी खाद्य हैं । यहाँ यह विचार नहीं किया जाता कि अमुक वस्तु खाने से धर्म, अथवा अमुक वस्तु खाने से For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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