________________
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
अन्तरंग में असातावेदनीय-कर्म की उदीरणा से तथा बहिरंग में आहार को देखने से, आहार करने में उपयोग लगाने से एवं पेट खाली होने से जीव को जो आहार की इच्छा होती है, उसे आहार संज्ञा कहते हैं। इसी प्रकार, स्थानांगसूत्र में आहार-संज्ञा की उत्पत्ति के चार कारण बताए गए हैं
1. पेट के खाली होने से, 2. क्षधावेदनीय-कर्म के उदय से, 3. आहार सम्बन्धी चर्चा को सुनने से, 4. आहार सम्बन्धी चिन्तन करने से।
आचारांगनियुक्ति की टीका (गाथा-26) में तैजसशरीर-नामकर्म, असाता- वेदनीय-कर्म और क्षुधावेदनीय-कर्म के उदय को आहार संज्ञा का कारण बताया है। इसकी तीव्रता देवताओं में सबसे कम और तिर्यंचों में सबसे अधिक पायी जाती है। दूसरे शब्दों में, क्षुधावेदनीय-कर्म के उदय से ग्रासादिरूप आहार के लिए तथाविध पुद्गलों को ग्रहणाभिलाषारूप क्रिया को आहार-संज्ञा कहते हैं।
सभी प्राणी आहार-संज्ञा के आश्रित हैं। प्राणी चाहे किसी जाति, योनि अथवा वर्ग का हो, चाहे वह स्थलचर हो, जलचर हो या नभचर ही क्यों न हो, आहार के रूप में अवश्य ही कुछ ग्रहण करता है। समस्त संसार आहार पर आधारित है। चाहे जैनदर्शन में अनाहारक दशा की कल्पना की गई हो, किन्तु वह मूर्त जगत् में सम्भव नहीं है। जीव के पूर्व शरीर के त्याग एवं नवीन शरीर के ग्रहण, केवली-समुद्घात और चौदहवें गुणस्थान, जो अतिक्षणिक है, में ही वह दशा संभव है।
हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि सूर्योदय होते ही पक्षी घोंसला छोड़कर दाना चुगने निकल जाते हैं, किसान आहार-निमित्त अन्न का उत्पादन करने के लिए हल एवं बैलों को लेकर खेतों की ओर प्रस्थान कर जाते हैं, यहाँ तक कि घर-गृहस्थी को त्यागकर साधना के पथ पर प्रवृत्त
आहारदसणेण य तस्सुवजोगेण ओम कोठाए सादिदरूदीरणाए हवदि ह आहार सण्णा ह||- गोम्मटसार जीवकाण्ड-134 स्थानांगसूत्र 4/579 आचारांगनियुक्ति टीका , गाथा-26 प्रज्ञापनासूत्र, 8/725 वही, 8/725
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org