________________
54
64
अध्याय-2
आहार - संज्ञा का स्वरूप एवं लक्षण
64
भारतीय मनीषियों ने यह माना है कि साधना के लिए शरीर आवश्यक है, बिना शरीर के साधना संभव नहीं होती, इसलिए कहा गया है। शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्, अर्थात् शरीर धर्म का साधन है, किन्तु यह शरीर आहार आश्रित है, आहार के बिना शरीर चल नहीं सकता। जैनदर्शन में छह पर्याप्तियों का भी उल्लेख मिलता है। पर्याप्ति, अर्थात् आहार, शरीर आदि वर्गणा के परमाणुओं को शरीर, इन्द्रिय आदि-रूप में परिणमन की शक्ति की पूर्णता को पर्याप्ति कहते हैं", या आहार, शरीरादि की निष्पत्ति को पर्याप्ति कहते हैं । उन छह पर्याप्तियों में प्रथम आहार -पर्याप्ति है । आहार-पर्याप्ति के कारण ही शरीर का निर्माण प्रारंभ होता है। शरीर के बाद इन्द्रिय, श्वासोच्छावास, भाषा एवं मन पर्याप्तियों का निर्माण होता है। अतः हम यह कह सकते हैं कि आहार ही मनुष्य के अस्तित्व का प्रथम सोपान है। इस कारण से, जैनदर्शन में सभी संज्ञाओं में आहार - संज्ञा को सर्वप्रथम माना गया है। इन पर्याप्तियों के पूर्ण होने पर भी संज्ञा तो बनी ही रहती है ।
आहार - संज्ञा (Food Seeking Instinct)
क्षुधावेदनीय - कर्म के उदय से आहार के पुद्गलों को ग्रहण करने की अभिलाषा आहार - संज्ञा है। 7
66
67
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
कुमारसम्भव महाकाव्य ( महाकवि कालिदास) विशेषांक)
Jain Education International
-
65 आहार य सरीरे तह इन्द्रिय आणपाण भासाए होत मणो वि य कमसो पज्जतीयो जिणमादा ।
धवला, 1/1/140
उत्तराध्ययनसूत्र, चरण विधि (मधुकरमुनि), अध्याय 31, पृ. 555
लेख आरोग्य अंक, पृ. 347 (75 वें वर्ष के कल्याणक
मूलाचार, गाथा 1048
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org