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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
इनमें जैनधर्म में वर्णित अनेक संज्ञाएं समाहित हो जाती हैं। कुशल चैतसिक - धर्मों के पच्चीस विभाग हैं। वे जैनधर्म के अनुसार धर्मसंज्ञा के अन्तर्गत ही हैं । जैनधर्म-दर्शन में सोलह संज्ञाएं बताई गई हैं। उनमें अधिकांश संज्ञाओं का उल्लेख हमें शान्तयोग, न्याय, वेशेषिक, वैदान्त आदि दर्शन में भी मिलता है ।
आधुनिक मनोविज्ञान में संज्ञा (मूल - प्रवृत्तियाँ)
पूर्वी और पश्चिमी - विचारक इस विषय में एकमत हैं कि व्यवहार का मूलभूत प्रेरक - तत्त्व वासना या कामना है, फिर भी व्यवहार के प्रेरक-तत्त्वों को संज्ञा कहा गया है। वस्तुतः, मनोविज्ञान में मतभेद पाया जाता है। फ्रायड जहाँ काम को ही प्रेरक - तत्त्व मानते हैं, वहाँ आधुनिक मनोविज्ञान ने मूलभूत प्रेरकों की संख्या सौ से भी अधिक मानी है, अतः व्यवहार में मूलभूत और मूलप्रवृत्तियाँ कितनी हैं, यह निर्धारित करना अति कठिन है।
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पाश्चात्य - मनोवैज्ञानिक मेकड्यूगल ने इन व्यवहार के प्रेरक - तत्त्वों को मूलप्रवृत्तियाँ (Instincts) कहा है । यद्यपि ये मूल प्रवृत्तियाँ कितनी हैं, इस सम्बन्ध में मेकड्यूगल के भी विचार बदलते रहे। प्रारंभ में उन्होंने सात मूल प्रवृत्तियाँ मानीं, किन्तु बाद में वे चौदह मूल प्रवृत्तियों का उल्लेख करते हैं ।
भारतीय-चिन्तन में व्यवहार के मूलभूत प्रेरक की संख्या के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं रहा है। जैन- दार्शनिकों में इन व्यवहार के प्रेरक - तत्त्वों को, जिन्हें वे संज्ञा के नाम से अभिहित करते हैं, उनमें भी कोई एकरूपता नहीं पाई जाती है । हमारे शोध में हमने देखा कि जैनधर्म-दर्शन में संज्ञाओं का यह वर्गीकरण चतुर्विध वर्गीकरण, दशविध वर्गीकरण और षोड़शविध वर्गीकरण पाया जाता है।
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प्रथम जो चतुर्विध वर्गीकरण है, उसमें मुख्य रूप से जैविक (Biological) पक्ष को प्राथमिकता दी गई। दशविध वर्गीकरण और षोडशविध वर्गीकरण में जैविक-पक्ष के साथ-साथ सामाजिक-पक्ष, मानसिक पक्ष और आध्यात्मिक - पक्ष को भी स्थान मिला है। सामाजिक-पक्ष के रूप में ओघ और लोकसंज्ञा का रूप मिलता है, जबकि आध्यात्मिक-पक्ष के रूप में धर्मसंज्ञा को ही स्थान मिलता है ।
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