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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
हैं।58 बौद्धधर्मदर्शन की यह भी मान्यता है कि कामना संकल्पजन्य है और संकल्प कामनाजन्य है।
गीता का दृष्टिकोण -
हिन्दू धर्मदर्शन में गीता एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। गीता में यह प्रश्न पूछा गया है कि किससे प्रेरित होकर यह मनुष्य पाप-कार्य करता है ? उसके उत्तर में श्रीकृष्ण ने कहा था - "हे अर्जुन! रजोगुण से उत्पन्न होने वाले काम और क्रोध ही पाप-आचरण के प्रेरक-तत्त्व हैं। वस्तुतः, काम और क्रोध में भी क्रोध तो काम से ही उत्पन्न होता है। इस प्रकार, काम ही एकमात्र प्रेरक-तत्त्व है, जो मनुष्य को पापाचरण में नियोजित करता है। आचार्य शंकर कहते हैं कि प्राणी काम से प्रेरित होकर ही पाप करता है। प्रवृत्तजनों की यही मान्यता है कि तृष्णा के कारण ही मैं यह सब कार्य करता हूं। जैनदर्शन में काम को परिग्रह-संज्ञा के रूप में, या मैथुनसंज्ञा के रूप में और क्रोध को संज्ञा के रूप में माना गया है।
- इस प्रकार, हम देखते हैं कि भारतीय आचार-दर्शन में व्यवहार के प्रेरक-तत्त्वों के रूप में अधिक मतभेद नजर नहीं आते हैं। बौद्ध-धर्म में जैनधर्म-दर्शन के समान चैतसिक धर्मों को दो भागों में बांटा गया हैकुशल चैतसिक-धर्म और अकुशल चैतसिक-धर्म, साथ ही, उसमें चैतसिक-धर्म को अनेक प्रकार से वर्गीकृत किया गया है। सर्वप्रथम उसमें सात. चैतसिक-धर्म बताये गये हैं। उनमें संज्ञा को भी चैतसिक-धर्म कहा गया है। इसी प्रकार, उसमें कुशल और अकुशल -दो धर्मों को बताते हुए अकुशल चैतसिक-धर्मों के चौदह विभाग किये गये हैं। ये मूल प्रवृत्तियाँ निम्न हैं -
1. पलायनवृत्ति (भय), 2. घृणा, 3. जिज्ञासा, 4 आक्रामकता (क्रोध), 5. आत्म-गौरव की भावना (मान), 6. आत्महीनता, 7. मातृत्व की संप्रेरणा, 8. समूह- भावना, 9. संग्रहवृत्ति, 10. रचनात्मकता, 11. भोजनान्वेषण, 12. काम, 13. शरणागति और 14. हास्य (आमोद)
58 वही - 3/107
गीता- 3/36 वही - 2/62 गीता-3/37
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