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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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शोधप्रबंध का पंचम अध्याय परिग्रह-संज्ञा के विवेचन से सम्बन्धित है। लोभ-मोहनीय-कर्म के उदय से सचित्त व अचित्त-द्रव्य का संचय करने की वृत्ति परिग्रह-संज्ञा है। प्राणी की संचयात्मक-वृत्ति के कारण इसकी उत्पत्ति के चार प्रकार बताए हैं -
1. संचय-करने की वृत्ति से, 2. लोभ-मोहनीय कर्म के उदय से, 3. अर्थ सम्बन्धी कथा सुनने से, 4. परिग्रह सम्बन्धी विचार करने से।
तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि 'मूर्छा, परिग्रहः । वस्तुतः, संचय में गाढ़ आसक्ति परिग्रह संज्ञा है। परिग्रह दो प्रकार का बताया गया है - 1. बाह्य 2. आभ्यन्तर। प्रस्तुत शोध में परिग्रह के स्वरूप एवं लक्षण की चर्चा तो की ही गई है, साथ ही संचय-वृत्ति से होने वाले दुष्परिणामों को भी दर्शाया गया है। समाज में संचय-वृत्ति को लेकर जो आपा-धापी या अराजकता फैली हुई है, उसका निराकरण कैसे सम्भव है- यह दिखाने का प्रयास किया गया है, साथ ही, महात्मा गांधी का ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त कितना सार्थक हो सकता है और मानव जीवन में ममत्ववृत्ति का त्याग एवं समत्ववृत्ति का विकास कैसे संभव हो सकता है, इस दिशा में चिन्तन किया गया है।
शोध-प्रबन्ध का षष्ठ अध्याय क्रोध-संज्ञा के विवेचन से सम्बन्धित है। क्रोध संज्ञा-मानसिक-मनोविकार तो है ही, किन्तु उत्तेजक आवेग भी है, जिसके उत्तेजित होते ही व्यक्ति भावाविष्ट हो जाता है। उसकी विचार-क्षमता और तर्कशक्ति लगभग शिथिल हो जाती है। प्रस्तुत अध्याय में क्रोध के स्वरूप, लक्षण, कारण और उसके विभिन्न रूपों के बारे में चर्चा तो की ही गई है, साथ ही क्रोध-संज्ञा से होने वाले दुष्परिणामों को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। आधुनिक मनोविज्ञान में क्रोध संवेग
और आक्रामकता की मूलवृत्तियों पर प्रकाश डालते हुए क्रोध-संज्ञा पर विजय कैसे प्राप्त की जाए एवं जीवन में मानसिक-शांति किस प्रकार स्थापित की जाए, इसकी भी चर्चा की गई है।
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