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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
प्राथमिकता देते हैं। इसी संदर्भ में जैनदर्शन में सप्तविध भय की अवधारणा का उल्लेख मिलता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उसका अध्ययनं आवश्यक है। जैनदर्शन भय के स्थान पर अभय (अहिंसा) की अवधारणा के विकास को प्रमुखता देता है । प्राणीमात्र भय से कैसे मुक्त हो, विश्व में शान्ति कैसे स्थापित हो एवं मानव जाति का कल्याण कैसे हो - इन बातों का तथ्यात्मक अध्ययन किया जाना चाहिए । प्रस्तुत शोधप्रबंध में हमारा यही उद्देश्य रहा है कि मानवता को ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण प्राणी - जगत् को भय से कैसे मुक्त किया जाए ।
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इस शोधप्रबंध का चतुर्थ अध्याय मैथुन - संज्ञा के विवेचन से सम्बन्धित है | चारित्रमोहनीय कर्म के उदय के कारण कामवासनाजन्य आवेग मैथुन -संज्ञा कहलाती है । स्थानांगसूत्र में मैथुन - संज्ञा के चार कारण बताए हैं.
1. नामकर्मजन्य दैहिक - संरचना के कारण,
2. मोहनीय कर्म के उदय से,
3. कामसम्बन्धी चर्चा करने से,
4. वासनात्मक - चिन्तन करने से ।
स्त्री-पुरुष की कामेच्छा को मैथुन - संज्ञा कहते हैं। जैनदर्शन में अंतरंग कामेच्छा के समान ही बहिरंग मैथुन - प्रवृत्ति को भी कर्मबन्ध का कारण बताया गया है। वस्तुतः, मैथुन - संज्ञा मनुष्य की पाशविक प्रवृत्ति की परिचायक है। इस पर विजय पाने हेतु जैनदर्शन में ब्रह्मचर्य की साधना को मुक्ति का सोपान बताया गया है। यह बात ठीक है कि मैथुन - संज्ञा के बिना संसार नहीं चल सकता, इसीलिए इसे पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता, परन्तु इस सम्बन्ध में भी विवेक अतिआवश्यक है। यदि कामवासनाओं पर विवेक की लगाम न लगाई जाए, तो सम्पूर्ण समाज-व्यवस्था खतरे में पड़ सकती है। प्रस्तुत चतुर्थ अध्याय में हमने कामवासना सम्बन्धी विकारों को विवेक की तराजू में तौलने का प्रयास किया है, साथ ही कामवासना के जय की प्रक्रिया और ब्रह्मचर्य की साधना के महत्त्व को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है तथा यह दिखाने का प्रयास किया है कि कामवासना का निरसन कैसे संभव है ।
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