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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व वासनात्मक - जीवन की परिचायक हैं । ' 1241 मनोविज्ञान की भाषा में हम इन्हें मूलप्रवृत्ति भी कह सकते हैं, क्योंकि इनका आधार जैविक है। 1242 शरीरधारी सभी प्राणियों में इनका अस्तित्व माना गया है। जब इन चार संज्ञाओं में क्रोध, मान, माया और लोभ - इन चार संज्ञाओं को जोड़ दिया जाता है, तो ये आठों ही मूलतः प्राणी की जैविक - वृत्ति की परिचायक ही लगती हैं। इस प्रकार, संज्ञाओं के चतुर्विध और दशविध - दोनों वर्गीकरणों में केवल लोक और ओघ -संज्ञा को छोड़ दें, तो शेष आठों संज्ञाएँ प्राणी की जैविक - मूलप्रवृत्तियों की ही परिचायक हैं। मात्र यही नहीं, इन दशविध संज्ञाओं में लोकसंज्ञा भी प्राणियों की सामान्य जैविक प्रवृत्तियों की ही परिचायक है। इस प्रकार, संज्ञाओं के दशविध वर्गीकरण में नौ संज्ञाएँ मूलतः प्राणी के जैविक और वासनात्मक - पक्ष को ही प्रस्तुत करती हैं। इनमें ओघसंज्ञा भी सामान्य व्यवहार की ही वाचक है, किन्तु ओघनिर्युक्ति' आदि जैन-ग्रन्थों में 'ओघ' शब्द का जो अर्थ दिया गया है, उससे इसे वासनात्मक न मानकर विवेकात्मक भी मानना पड़ता है। जैनदर्शन के अनुसार, व्यक्ति का विवेक चाहे कितनी ही प्रसुप्त अवस्था में क्यों न हो, विवेक का एक पक्ष तो अवश्य ही उद्घाटित रहता है, किन्तु यह विवेक प्राणी के सामान्य व्यवहार से जुड़ा है या आध्यात्मिक - व्यवहार से- यह विचारणीय प्रश्न है। जैनदर्शन में ओघनिर्युक्ति में नैतिक एवं धार्मिक- आचार के सामान्य नियमों का उल्लेख है, अतः ओघ को विवेकपूर्ण आचार के सामान्य नियमों का वाचक भी माना जा सकता है। इस प्रकार, जैन-आचार्यों ने ओघनिर्युक्ति नामक ग्रंथ में ओघ को वासनात्मक पक्ष से न जोड़कर मात्र सदाचारात्मक विवेकपूर्ण जीवन से ही जोड़ा है। इसे आचार के नियमों की सामान्य समझ के रूप में बताया गया है। 1244 इस प्रकार, ओघसंज्ञा को वासना और विवेक - दोनों से सम्बन्धित माना जा सकता है। 1243 जैनदर्शन में संज्ञाओं का एक षोडशविध वर्गीकरण भी मिलता 12415 इसमें से सुख-दुःख, मोह, शोक और विचिकित्सा - इन पांच संज्ञाओं 1241 उपासकाध्ययनसूत्र, गाथा - 56-56 1242 व्यक्तित्व का मनोविज्ञान, अरुणकुमार सिंह, आशीषकुमार सिंह, पृ. 191 1243 1244 1245 ओघनिर्युक्ति-2 ओघनियुक्ति-2 1) आचारांगसूत्र- 1/1/2 विवेचन में । 2) प्रशमरति परिशिष्ट, भाग - 2, श्री भद्रगुप्तविजयजी, पृ. 284 Jain Education International 559 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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