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________________ 540 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व परिग्रह या संचयन के प्रति जो आसक्ति या मूर्छा का भाव उत्पन्न होता है, वह परिग्रहसंज्ञा कहलाती है। वैसे देखा जाए, तो संज्ञा 'पर' के प्रति रागात्मक भाव ही है, परन्तु उसकी जिन-जिन दैहिक-प्रतिक्रियाओं के रूप में अभिव्यक्ति होती है, वे भिन्न-भिन्न संज्ञाओं का रूप ले लेती हैं। चेतना किसी समय किसी एक विषय पर सघन होती है और किसी एक विषय पर विरल होती है। नारकीय जीवों में भय-संज्ञा, देवताओं में परिग्रह-संज्ञा, तिर्यंच में आहार-संज्ञा और मनुष्य में मैथुन-संज्ञा प्रबल होती है। यह विभाजन प्रधानता की दृष्टि से किया जाता है। वैसे तो सभी प्राणीय जीवों में आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञाएँ होती ही हैं, किन्तु सबका एक समय में प्रबल होना आवश्यक नहीं है, किन्तु धर्म-संज्ञा को छोड़कर शेष सभी संज्ञाओं में राग-भाव या चैतसिक-आसक्ति ही प्रधान होती है, अतः वह राग-भाव, तृष्णा या आसक्ति कैसे छूटे, यह संज्ञा-मुक्ति का उपाय है। प्रस्तुत शोधप्रबंध का सार यही बतलाना है कि संज्ञाओं को जाने, पहचानें और उन पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करें। यह असंभव नहीं है कि हम संज्ञाओं से मुक्त न हों। आदमी का व्यक्तित्व परिवर्तनशील है, वह चेतना के स्तर पर संज्ञाओं के आवरण को तोड़ सकता है, अर्थात् इस प्रकार अनासक्त, वीततृष्णा या वीतराग . जीवन-दृष्टि का विकास कर अपनी चेतना में विवेकशीलता का विकास कर सकता है। यदि यह सम्भव नहीं होता है, तो साधना की बात ही व्यर्थ हो जाएगी, धर्म-साधना का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा तथा हमारे पुरुषार्थ की भी कोई सार्थकता नहीं होगी। जैन धर्मदर्शन की यह मान्यता है कि –'प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकती है। परमात्मपद की यह प्राप्ति तृष्णा, राग-द्वेष एवं मोह पर विजय अर्थात् संज्ञाओं पर विजय-प्राप्ति के द्वारा ही संभव है। आत्मा परमात्मा बने, हमारी चेतना निराकुल हो सके, यह बताना ही इस शोधप्रबन्ध की उपादेयता है। -------000------- Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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