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________________ 538 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व प्रतिकूल के प्रति विकर्षण- यह प्राणीय-स्वभाव है। आचारांगसूत्र में कहा गया है -"सभी प्राणियों को सुख प्रिय है, अनुकूल है और दुःख अप्रिय है, प्रतिकूल है।" सभी प्राणी सुख प्राप्त करना चाहते हैं और दुःख से बचना चाहते हैं। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के ग्यारहवें अध्याय में सुख और दुःख संज्ञाओं का अर्थ तथा उनकी सापेक्षता को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है, साथ ही, सुख व्यवहार के प्रेरक के रूप में और दुःख व्यवहार के निवर्तक के रूप में किस प्रकार कार्य करते हैं, इस बात का भी उल्लेख करने का प्रयास किया गया है। इसके अतिरिक्त, सुखवाद की अवधारणा एवं भौतिक-सुख और आत्मिक-आनन्द में क्या अन्तर है, इसको भी समझाने का प्रयत्न किया गया है। इस शोधप्रबंध का बारहवाँ अध्याय धर्म-संज्ञा से सम्बन्धित है। आत्मा की कर्मक्षय के निमित्त से होने वाली स्वभाव–परिणति धर्मसंज्ञा है। . जैनदर्शन में स्व-स्वभाव में अवस्थिति और परपरिणति से निवृत्ति को ही धर्मसंज्ञा कहा गया है। प्रस्तुत शोधप्रबंध में धर्म के विभिन्न कार्य, उसकी परिभाषाएँ एवं धर्मसंज्ञा का सम्यक स्वरूप क्या है, यह बताने का प्रयत्न किया गया है, साथ ही, धर्म की जीवन में क्या उपादेयता है- इस बात को समझाने का भी प्रयास किया गया है। धर्मसंज्ञा ही मोक्ष का सोपान किस रूप में है, उसे भी स्पष्ट किया है। प्रस्तुत शोध-प्रबंध के तेरहवें अध्याय में हमने मोहसंज्ञा, शोकसंज्ञा और विचिकित्सासंज्ञा की चर्चा की है। यहाँ मोह का अर्थ सांसारिक-पदार्थ के प्रति ममत्व की वृत्ति है, मोह 'पर' में 'स्व' का आरोपण है और इसलिए वह मोक्ष में बाधक है। प्रस्तुत अध्याय में मोहसंज्ञा की विवेचना करते हुए यह भी बताने का प्रयास किया है कि मोह पर विजय कैसे प्राप्त की जाये। इसी प्रकार, इस अध्याय में शोकसंज्ञा की चर्चा की गई और उसे आर्तध्यान का ही रूप बताया गया है। इस शोक के साथ यह भी स्पष्ट किया गया है कि इसके क्या दुष्परिणाम होते हैं और उस पर विजय कैसे प्राप्त की जा सकती है? इस प्रकार, इस अध्याय में विचिकित्सा-संज्ञा अर्थात् घृणा की वृत्ति की चर्चा की गई है और यह बताया गया है कि यह वृत्ति किसके प्रति आवश्यक है और किसके प्रति अनावश्यक है। मुख्य रूप से हमारा प्रतिपाद्य यह है कि जहाँ से राग का जन्म होता है, वहाँ जुगुप्सा साधना का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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