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2. भयमोहनीय कर्म के उदय से, 3. भयोत्पादक वचनों को सुनकर, 4. भय सम्बन्धी घटनाओं के चिन्तन से ।
यद्यपि भय-संज्ञा एक मनोभाव है, किन्तु उसके कारण आज सम्पूर्ण विश्व संकटपूर्ण स्थिति से गुजर रहा है । वर्त्तमान स्थिति को देखें, तो भय-संज्ञा या अंधविश्वास एक विकट रूप लिये हुए है । विश्व का प्रत्येक देश जितना प्रयास एवं अर्थव्यय मानव-कल्याण के लिए नहीं करता है, उतना वह सुरक्षा के लिए करता है, क्योंकि उसे अन्य शक्तिशाली देशों के आक्रमण का भय सतत बना रहता है। आज पारस्परिक- अविश्वास के कारण अस्त्र-शस्त्रों की अंधी दौड़ ने मानव को भयभीत बना दिया है। वर्त्तमान युग में वे मानवीय - कल्याण की बात छोड़कर सुरक्षा को प्राथमिकता देते हैं। इसी संदर्भ में जैनदर्शन में सप्तविध भय की अवधारणा का उल्लेख मिलता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उसका अध्ययन आवश्यक है। जैनदर्शन भय के स्थान पर अभय (अहिंसा) की अवधारणा के विकास को प्रमुखता देता है । प्राणीमात्र भय से कैसे मुक्त हो, विश्व में शान्ति कैसे स्थापित हो एवं मानव-जाति का कल्याण कैसे हो, इन बातों का तथ्यात्मक अध्ययन किया जाना चाहिए । प्रस्तुत शोधप्रबंध में हमारा यही उद्देश्य रहा है कि मानवता को ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण प्राणी - जगत् को भय से कैसे मुक्त किया जाए ।
इस शोधप्रबंध का चतुर्थ अध्याय मैथुन - संज्ञा के विवेचन से सम्बन्धित है | चारित्रमोहनीय कर्म के उदय के कारण कामवासनाजन्य आवेग मैथुन-संज्ञा कहलाती है । स्थानांगसूत्र में मैथुन - संज्ञा के चार कारण बताए हैं-.
1. नामकर्मजन्य दैहिक - संरचना के कारण,
2. मोहनीय कर्म के उदय से,
3. कामसम्बन्धी चर्चा करने से,
4. वासनात्मक - चिन्तन करने से ।
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
स्त्री-पुरुष की कामेच्छा को मैथुन - संज्ञा कहते हैं। जैनदर्शन में अंतरंग कामेच्छा के समान ही बहिरंग मैथुन - प्रवृत्ति को भी कर्मबन्ध का कारण बताया गया है। वस्तुतः, मैथुन - संज्ञा मनुष्य की पाशविकप्रवृत्ति की
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