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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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3. आहार सम्बन्धी चर्चा से, 4. आहार का चिन्तन करने से ।
यद्यपि भारतीय संस्कृति धर्म और अध्यात्म-प्रधान है, किन्तु धर्म और अध्यात्म की साधना देह-आश्रित है। भारतीय मनीषियों ने यह माना है कि धर्म-साधना के लिए शरीर आवश्यक है। बिना शरीर के साधना संभव नहीं है, किन्तु यह शरीर आहार-आश्रित है, आहार के बिना शरीर नहीं चल सकता, अतः शरीर के रक्षण और पोषण के निमित्त आहार को आवश्यक माना गया है, किन्तु भारतीय--चिंतकों का यह भी मानना है कि जीवन के लिए भोजन अपरिहार्य होते हुए भी स्वस्थ एवं संयमी जीवन के लिए आहार का विवेक आवश्यक है। जब तक जीवन है, तब तक आहार की आकांक्षा भी रही हुई है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि जो भी चाहा, या जब भी चाहा, खा लिया जाय। उसके लिए आहार का विवेक भी आवश्यक है, क्योंकि बिना आहार-विवेक के स्वास्थ्य और साधना -दोनों संभव नहीं है। प्रस्तुत द्वितीय अध्याय में हमने आहार की अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए यह निर्धारित करने का प्रयत्न किया है कि मनुष्य में आहार का विवेक किस रूप में हो। आहारसंज्ञा मनुष्य में बैठी हुई पाशविक -प्रवृत्ति की परिचायक है, तो आहार-विवेक उस पाशविक-प्रवृत्ति को मानवीय-गुण प्रदान करता है। यही कारण है कि हमनें द्वितीय अध्याय में जहाँ एक ओर आहारसंज्ञा के स्वरूप, उसकी उपस्थिति और अनिवार्यता की चर्चा की है, वहीं दूसरी ओर आहार के विवेक की चर्चा भी की और बताया है कि जैन-परम्परा के अनुसार मनुष्य को क्या, कब और कितना खाना चाहिए, क्योंकि आहार के विवेक के अभाव में स्वयं व्यक्ति का स्वास्थ्य भी खतरे में पड़ जाएगा। वर्तमान युग में मनुष्य अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग हुआ है, अतः आहार-संज्ञा का तथ्यात्मक और मूल्यात्मक-विवेचन किया जाना चाहिए, यह युग की मांग है। प्रस्तुत शोधप्रबंध में हमने 'इसी दिशा में प्रयत्न किया है।
इस शोधप्रबंध का तृतीय अध्याय भय-संज्ञा से सम्बन्धित है। मोहनीय-कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला आवेग भय है, उद्वेगों के मूल में भय की सत्ता रही हुई है। स्थानांगसूत्र के अनुसार भय की उत्पत्ति के चार कारण निम्न हैं
1. सत्त्वहीनता से,
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