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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
प्राप्त हो -यह आवश्यक नहीं है। श्वेताम्बर-परंपरा में आहार-संज्ञा को छोड़कर शेष सभी संज्ञाओं की उपस्थिति में मोक्ष का अभाव माना है। दिगंबर-परम्परा तो आहार-संज्ञा की उपस्थिति में भी मोक्ष की संभावना स्वीकार नहीं करती है। धर्म और ओघ-संज्ञा को जब हम विवेकात्मक-रूप से स्वीकार करते हैं, तब वह मोक्ष का साधन बनती है, लेकिन मोक्ष-अवस्था तो निश्चय में संज्ञा और संज्ञी से भिन्न है। मोक्ष-दशा में न संज्ञा रहती है और न संज्ञा का भाव रहता है। 1234
जैन आचार्यों की दृष्टि में जहाँ संज्ञा शब्द सामान्य जैविकप्रवृत्तियों का वाचक है, वहीं संज्ञी शब्द विवेकशील प्राणियों का ही वाचक है। जैन-आचार्यों ने यह माना है कि जिसमें हेय, ज्ञेय और उपादेय का विवेक हो, वही संज्ञी कहलाता है। 1235 इस आधार पर वे यह मानते हैं कि संज्ञा सामान्यतः संसार के सभी प्राणियों में पायी जाती है, किन्तु संज्ञी वे ही होते हैं, जो हेय, ज्ञेय और उपादेय की विवके-क्षमता से युक्त होते हैं।
जैनदर्शन के अनुसार, सांसारिक-प्राणियों में उच्चस्तरीय पंचेन्द्रिय प्राणी और मनुष्य ही ऐसे हैं, जो संज्ञी-पद के अधिकारी हैं। यद्यपि नारकों और देवों में संज्ञीपना माना गया है,1236 किन्तु वे दोनों की भोगभूमियाँ हैं। यहाँ वे केवल अपने शुभाशुभ कर्मों का भोग करते हैं, उनमें त्याग-मार्ग या निवृत्ति-मार्ग में आगे बढ़ने की क्षमता नहीं होती। चाहे उनमें हेय, ज्ञेय या उपादेय का विवेक हो (क्योंकि नरक में भी सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं), किन्तु न तो उनमें हेय का परित्याग करने की और न उपादेय को ग्रहण करने की क्षमता होती है और वह अपनी जैविक-वृत्तियों से भिन्न जीवन जी सकते हैं। यद्यपि कुछ पशु, देव एवं नारक, संज्ञा और संज्ञी –दोनों हैं, फिर भी हेय का परित्याग और उपादेय का ग्रहण करने की शक्ति न होने के कारण वे उसी जीवन में मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं।
इस प्रकार, सामान्य रूप से हम कह सकते हैं कि सामान्यतया संज्ञाएँ प्राणीय-जीवन के वासनात्मक और जैविक-पक्ष को प्रस्तुत करती हैं, जबकि संज्ञा का भाव प्राणी के विवेकात्मक-पक्ष को प्रस्तुत करता है। यहाँ हमें यह समझ लेना चाहिए कि ज्ञानात्मक विवेक-क्षमता और
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प्रज्ञापनासूत्र; सूत्र 1965-1973 द्रव्यानुयोग, भाग-1, मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल', अध्याय-9 पृ. 270 प्रज्ञापनासूत्र, सूत्र 1968–1973
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