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________________ 530 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व स्वभाव में स्थित होने की प्रक्रिया मानें, तो इन दोनों का संबंध विवेक से मानना होगा। । यद्यपि जैनदर्शन में संज्ञा को मूलतः जैविक वासनात्मक-पहलू के रूप में विवेचित किया गया है, किन्तु जैन-दर्शन की यह भी मान्यता रही है कि इन जैविक-वासनात्मक-प्रवृत्तियों के ऊपर नियंत्रण या विजय प्राप्त करने और अपने सहज चेतन स्वभाव में अर्थात् ज्ञातादृष्टाभाव में स्थित रहने का सामर्थ्य मनुष्य में है। जैन-आचारशास्त्र की विशेषता यही है कि उसने सदैव वासना पर विवेक का अंकुश रखा है। प्रत्येक संज्ञा के विवेचन में हमने यह दिखाया है कि उन संज्ञाओं पर विजय कैसे प्राप्त करें। सामान्यतः, जो संज्ञाएँ जीवन-व्यवहार के वासनात्मक पक्ष की उद्दीपक हैं, उन पर तो नियंत्रण आवश्यक है। सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि संज्ञा अर्थात् अपनी विवेकशक्ति को क्रोध, मान, माया, लोभ आदि चेतना के वासनात्मक-पक्ष में निवेशित न करें। 1232 यहाँ वासना पर विवेक के अंकुश की बात स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। संज्ञा और संज्ञी में अंतर - जैनदर्शन में संज्ञा के वासनात्मक-पक्ष को संज्ञा और विवेकात्मकपक्ष को संज्ञी के रूप में विवेचित किया गया है। जैनदर्शन में संज्ञा और संज्ञी -ये दो शब्द स्पष्ट रूप से प्रयुक्त हुए हैं। सामान्यतया, संज्ञी वह कहा जाता है, जिसमें विवेकात्मक मन हो। इसी विवके-क्षमता के आधार पर जैन-आचार्यों ने संज्ञा और संज्ञी में अंतर किया है। जैन-आचार्यों ने यह माना है कि संज्ञी प्राणी ही मोक्ष का अधिकारी होता है, जबकि मात्र संज्ञा होने पर किसी को मोक्ष का अधिकार 1232 अणासिता नाम महासियाला, पगभिणो तत्थ सयायकोवा। खज्जति तत्थ बहुकूरकम्मा, अदूरया संकलियाहिं बद्धा ।। 20 ।। सदाजला नाम नदी भिदुग्गा, पविज्जला लोहविलीणतत्ता। जंसी भिदुग्गंसिं पवज्जमाणा, एगाइयाऽणुक्कमणं करेंति।। 21 ।। एआई फासाइं फुसति बालं, निरंतरं तत्थ चिरद्वितीयं । ण हम्ममाणस्स तु होति ताणं, एगो सयं पच्चणुहोति दुक्खं ।। 22 || -सूत्रकृतांगसूत्र-2/5/20,21,22 - 1233 संज्ञिनः समनस्काः । -तत्त्वार्थसूत्र- 2/25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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