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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
से संज्ञा विशेष महत्त्वपूर्ण मानी गई है। जैनदर्शन में इन संज्ञाओं को दो भागों में बांटा गया है। पहला – उदयजन्य, जो कर्म के उदय से प्राप्त होती हैं और दूसरी - क्षयोपशमजन्य, जो कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होती
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उदयजन्य संज्ञाएँ मोहनीयकर्म के उदय से होती हैं, इसलिए वे संसार का कारण भी होती हैं, किन्तु ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय के क्षयोपशम से जो संज्ञाएँ उत्पन्न होती हैं, वे प्राणी के विवेकात्मक - पक्ष पर विशेष बल देती हैं। विवेक-आधारित संज्ञाओं के तीन प्रकार माने गए हैं। 1. हेतुवादोपदेशिकी - संज्ञा, 2. दीर्घकालिक - संज्ञा 3. दृष्टिवादोपदेशिकी - संज्ञा ।'
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1. हेतुवादोपदेशिकी - संज्ञा वह संज्ञा, जिसमें वर्त्तमान के संदर्भ में ही ज्ञान, चिंतन और उपयोग हो और दुःख - मुक्ति का एवं सुख प्राप्ति का उद्देश्य हो, उसे हेतुवादोपदेशिकी - संज्ञा कहते हैं, जैसेगर्मी हो, तो छाया में जाना, सर्दी हो, तो धूप में जाना, भूख लगने पर आहारादि के लिए प्रवृत्ति करना आदि ।
2. दीर्घकालिक संज्ञा वह संज्ञा, जिसमें भूत, वर्त्तमान एवं भविष्यकाल - तीनों कालों का विचार - चिन्तन होता है, उसे दीर्घकालिक - संज्ञा कहते हैं । मनोबलप्राण वाले समस्त जीवों में यह संज्ञा पाई जाती है। इसका दूसरा नाम संप्रसारण-संज्ञा भी है।
3. दृष्टिवादोपदेशिकी -संज्ञा जो जीव सम्यग्दर्शन के परिणामस्वरूप आत्मा का हित-अहित सोचते हैं, अविवेक, अनिष्ट, अकरणीय, अभक्ष्य का त्याग करके इष्ट, करणीय एवं भक्ष्य को स्वीकार करते हैं, उन जीवों की संज्ञा दृष्टिवादोपदेशिकी - संज्ञा होती है। पंचेन्द्रिय गर्भज मनुष्यों में ही ये संज्ञाएँ होती हैं ।
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इस प्रकार, मोहनीय कर्मप्रकृति के उदय से होने वाली संज्ञाएँ, जो उदयजन्य संज्ञा हैं, इनका वर्गीकरण भी अनेक प्रकार से किया गया है। संज्ञाओं का जो चतुर्विध, दशविध और षोडशविध वर्गीकरण पाया जाता है, उनमें चतुर्विध के अन्तर्गत आने वाली चार संज्ञाएँ (आहार, भय, मैथुन और
दण्डक प्रकरण, गाथा-33
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