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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व जैनदर्शन में संज्ञा शब्द का प्रयोग दो अर्थों में देखा जाता है - वासनात्मक एवं विवेकात्मक | जैनदर्शन में संज्ञाओं का जो चतुर्विध वर्गीकरण पाया जाता है, उसमें आहार, भय, मैथुन और परिग्रह - संज्ञाएं समाहित हैं, यह संज्ञा का वासनात्मक पक्ष है। इसी प्रकार, क्रोध, मान, माया और लोभ - इन चार कषायों को उद्दीप्त करने वाली वृत्ति को भी संज्ञा कहा गया है, ये भी मानवीय व्यवहार के वासनात्मक पक्ष से ही संबंधित हैं। इसी क्रम में, लौकिक-प्रवृत्तियां तथा सुख - दुःख आदि की अभिप्रेरक वृत्तियाँ भी संज्ञा कही गई हैं, साथ ही मोह, शोक, विचिकित्सा आदि को भी संज्ञा में समाहित किया गया है। ये सभी वासनात्मक पक्ष की परिचायक हैं। लोक-संज्ञा से प्राणी में जो लोक-परम्परा के अन्धानुकरण की प्रवृत्ति पाई जाती है, वह भी संज्ञा कही जाती है, किन्तु जैनदर्शन में संज्ञाओं के इस वासनात्मक - पक्ष की अपेक्षा भी विवेकात्मक पक्ष को अधिक महत्त्व दिया गया है । संज्ञाओं के षोडषविध वर्गीकरण में चौदह संज्ञाएं वासनात्मक - पक्ष को ही अभिप्रेरित करती हैं, पर ओघ और धर्म-संज्ञा ऐसी संज्ञाएं हैं, जो संज्ञा के विवेकात्मक पक्ष को प्रस्तुत करती हैं। संज्ञा के दोनों पक्षों की चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं, अतः अभी यहाँ विस्तार से वर्णन करना उचित नहीं । 1222 'संज्ञा' शब्द की व्युत्पत्ति सम् + ज्ञान से भी मानी जाती है। यह प्राणी में रही हुई विचार-विमर्श की सूचक है। यही कारण था कि जैन - आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान के जिन पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख किया है, उनमें संज्ञा शब्द को मतिज्ञान का पर्यायवाची माना है। इस प्रकार, संज्ञा विवेक - सामर्थ्य की भी सूचक है । ऐन्द्रिकज्ञान और विमर्शात्मकज्ञान भी संज्ञा के अन्तर्गत ही आते हैं, यही कारण है कि आचार्यों ने ओघ और धर्म को संज्ञा के रूप में ही स्वीकार किया है । इस प्रकार, हम यह कह सकते हैं कि जैनदर्शन में संज्ञा शब्द जीववृत्ति और विवेकवृत्ति - दोनों का ही परिचायक रहा है। वह यह बताता है कि प्राणी जो भी व्यवहार करता है, उसके पीछे कोई भी संज्ञा अवश्य रहती है । यद्यपि वासनात्मक और विवेकात्मक - संज्ञाएँ व्यवहार M प्रेरक रही हैं, फिर भी वासना की अपेक्षा विवेक को प्रधानता देने के उद्देश्य 1222 525 मति: स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । - तत्त्वार्थसूत्र - 2/13 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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