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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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8. लोभसंज्ञा | 8. शरणागत होना | 8. करुणा 9. लोकसंज्ञा 9. यौनप्रवृत्ति
| 9.कामुकता (Sexuality) 10.ओघसंज्ञा | 10. शिशुरक्षा 10. स्नेह (मूलप्रवृत्तियों से अलग है) 11. सुखसंज्ञा 11. दूसरों की अभिलाषा 11. एकाकीपन का भाव 12. दुःखसंज्ञा | 12. आत्मप्रकाशन 12. उत्साह 13. धर्मसंज्ञा | 13. विनीतता
13. आत्महीनता (मूलप्रवृत्तियों से | अलग है) 14. मोहसंज्ञा 14. हंसना
14. प्रसन्नता 15. शोकसंज्ञा | 16. विचिकित्सा | (जुगुप्सासंज्ञा)
जैनदर्शन में संज्ञाओं की जो अवधारणा है, वह पाश्चात्य-मनोविज्ञान के मैकड्यूगल के मूलप्रवृत्तियों के सिद्धांत से बहुत कुछ समानता रखती है। तुलनात्मक- दृष्टि से विचार करने पर जैनदर्शन में मूलभूत चार संज्ञाएं- आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा मानी गई हैं, उनकी समरूपता मैकड्यूगल की मूलप्रवृत्तियों से देखी जा सकती है, जैसे- जैनदर्शन में जो आहारसंज्ञा बताई गई है, उसे मैकड्यूगल ने भोजन की खोज नामक मूलप्रवृत्ति माना है और उसका आधार 'भूख' संवेग को बताया है। जैन-दर्शन के अनुसार, सभी संसारी-जीवों में आहारसंज्ञा होती है, मात्र वीतराग केवली-परमात्मा में आहारसंज्ञा को लेकर मतभेद हैं। दिगम्बर- परम्परा उनमें आहारसंज्ञा का अभाव मानती है, श्वेताम्बर उनमें भी आहार-ग्रहण मानते हैं।
उसी प्रकार, मैकड़युगल की भागने की मूलप्रवृत्ति का संबंध जैनदर्शन की भयसंज्ञा से जोड़ा जा सकता है। मैकड्यूगल ने भी इस भागने की प्रवृत्ति का आधार 'भय' का संवेग ही माना है।
इसी क्रम में, जैनदर्शन की मैथुनसंज्ञा को मैकड्यूगल की यौनप्रवृत्ति के समरूप माना जा सकता है। मनोविज्ञान ने इसका संबंध कामुकता के संवेग से माना है। यौनप्रवृत्ति या कामुकता वस्तुतः मैथुनसंज्ञा
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