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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
है। देह का आकर्षण कम होने पर व्यक्ति का ध्यान आत्मा की ओर जाता है। वह अन्तर्मुखी होकर कर्मबंधन से बचने का प्रयास करता है।
__वस्तुतः, अशुचि-भावना के माध्यम से हम स्वशरीर पर घृणा के भाव रखेंगे, तो हमें दूसरों के प्रति घृणा उत्पन्न ही नहीं होगी, क्योंकि दूसरों की अपेक्षा ज्यादा गंदगी तो हमारे (स्वशरीर) में दिखाई दे रही है। स्वयं के पास ही अशुचि ज्यादा है, इसका ज्ञान हो जाए, तो किसी भी पर पदार्थ के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न नहीं होगा और धीरे-धीरे विचिकित्सा . समाप्त हो जाएगी। ध्यान के माध्यम से -
विचिकित्सा पर विजय ध्यान के माध्यम से की जा सकती है। ध्यान में बाह्य-वस्तु से नाता टूट जाता है। मन एकाग्र, आत्मलीन और अन्तर्मुखी हो जाता है। ध्यान में मात्र आत्मदर्शन के सिवाय अन्य परपदार्थ दिखाई नहीं देते हैं। ध्यानावस्था में व्यक्ति, वस्तु और अन्य पर न तो द्वेष होता है, न राग होता है। इस स्थिति में घृणादि के भाव नहीं हो सकते, अतः ध्यान विचिकित्सा को दूर करने की श्रेष्ठ चिकित्सा है। द्रव्यसंग्रहटीका में कहा गया है -निश्चय से तो निर्विचिकित्सा- गुण के बल से समस्त राग-द्वेषजन्य आदि विकल्परूप तरंगों का त्याग करके निर्मल आत्मानुभव करना, या निज शुद्धात्मा में स्थिति करना, निर्विचिकित्सा नामक गुण
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विचिकित्सा पर विजय का लक्ष्य यह है कि इस शरीर के प्रति ममत्व कम हो, दैहिक-सुन्दरता के प्रति आकर्षण कम हो और मनुष्य अपनी आत्मिक-सुन्दरता का दर्शन करे।
कस्तूरी काली है, तो क्या ? गुणवान् है, हजारों रुपयों की तोला भर आती है, शकर सफेद है, किन्तु कस्तूरी जैसी गुणवान् नहीं है, इसलिए पत्थरों से तुलती है। वस्तुतः, बाहरी रूप का कोई मूल्य नहीं है, मूल्य आत्मा की सुन्दरता का है।
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निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिर्विचिकित्सा गुणस्य बलेन समस्तद्वेषादिविकल्परूपकल्लोलमाला त्यागेन निर्मलात्मानुभूतिलक्षणे निजशुद्धात्मनि व्यवस्थानं निर्विचिकित्सा गुण इति। -द्रव्यसंग्रह टीका- 41/173/2
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