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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 483 आचारांगसूत्र में भी कहा है - जो अनायास प्राप्त मनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श को पाकर मोह नहीं करता तथा अमनोज्ञ पापजन्य अशुभ शब्दादि को पाकर प्रद्वेष भी नहीं करता, वही साधक पंडित अर्थात जितमोह कहलाता है। 1148 उत्तराध्ययन में भी कहा है - इन पांचों इन्द्रियों के विषयों के ग्रहण के प्रति मन में जरा भी मोह न करें, मन को चंचल न होने दें, वचन से अच्छी-बुरी प्रतिक्रिया प्रकट न करें तथा काया को भी उसके प्रभाव से शून्य बना दें। मन में शुभ या अशुभ रूप, शब्द, रस, गन्ध और स्पर्श का स्मरण-मनन न करें और न आसक्ति, मोह, लालसा, वासना, लिप्सा आदि करें।1149 इस प्रकार, हम मोह को जीत सकते हैं, परंतु कुन्दकुन्दाचार्य समयसार में कहते हैं कि मात्र इन्द्रियों के विषय को समाप्त करने से मोह पर विजय प्राप्त नहीं हो सकती, इसके लिए वस्तु के प्रति जो आसक्ति है, उसे हटाने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार के व्यक्ति को ही 'जितमोह' कहा गया है। जितमोह व्यक्ति मोह को जान तो रहा है, देख भी रहा है कि यह बुरा है, जैसे- कोई व्यक्ति बाह्य-रूप से मिठाई का त्याग करता है, वह जान रहा है कि यह त्याग मिठाई के प्रति उसकी जो आसक्ति है, उसे कम करेगा, उस व्यक्ति ने बाह्य-रूप से तो मोह को जीत लिया है, परंतु अंदर बनी रहने वाली आसक्ति को नहीं जीत पाया है।150 यहाँ पर भी मोह की सत्ता माननी तो होगी। क्षीणमोह' वह है, जो मोह का संपूर्ण रूप से क्षय कर देता है। जो व्यक्ति आंतरिक रूप से भी मोह को त्याग देता है, वही क्षीणमोह कहलाता है।1151 . कुन्दकुन्दाचार्य ने मोह को जीतने के लिए सर्वप्रथम बाह्य-इन्द्रियों के विषय को त्यागने की बात की, फिर बाह्य-वस्तु का त्याग तो मोह को 1148 1149 1150 तयोर्न वशमागच्छेतौ हास्य परिपन्थिनौ।। – भगवद्गीता- 3/34 आचारागसूत्र- 2/3/15/131-135 जे सद्द-रूव-रस-गंधमायए, फासे य संपप्प मणुण्णपावए। गेही पओसं न करेज्ज पंडिए, स होति दंते विरए अकिंचणं।-उत्तराध्ययनसूत्र, वृत्ति 32 जो मोहूं तु जिणित णाणसहावाधियं मुणइ आद। तं जिदमोहं साहुं परमट्ठावियाणया विति।। - समयसार, गाथा 32 जिमोहस्स दुजइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स। तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहि।। - वही, गाथा 33 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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