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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मोह के कारण ही मनुष्य की दुर्गति होती है, परंतु इस मोह को भी त्यागा जा सकता है, अतः आगे, इस मोह पर विजय कैसे हो- इस बात की चर्चा करेंगे।
मोह पर विजय कैसे प्राप्त करें ?
मोह वास्तव में एक मानसिक-आवेग है। मानसिक आवेगों पर विजय कैसे प्राप्त की जाए-यह एक प्रश्न है ? मोह वस्तुतः दोहरा कृत्य है, जिसमें एक तो वह व्यक्ति के दृष्टिकोण को भ्रमित करता है तथा उसे दोषयुक्त बनाता है। दृष्टि के दूषित होने पर वस्तुस्थिति का निर्णय सम्यक प्रकार से नहीं किया जा सकता है।
.. मोह पर विजय प्राप्त करने के लिए समयसार में कुन्दकुन्दाचार्य ने जितेन्द्रिय, जितमोह तथा क्षीणमोह- इन तीन प्रकार से मोह को जीतने की बात की है। जितेन्द्रिय होना, अर्थात् इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना। बाह्य-वस्तुओं के प्रति जिसका मोह अधिक होता है, उसे अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना चाहिए। चूंकि इन्द्रियों के विषय पराश्रित हैं, अतः मोह पर विजय पाने के लिए सर्वप्रथम चित्तवृत्ति को इन्द्रियों के विषयों अर्थात् बाह्य-विषयों से हटाकर 'स्व' में स्थित करने का प्रयास करना चाहिए। जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर अपने ज्ञानस्वभाव के द्वारा आत्मा को जानता है, उसे ही नियम से, अर्थात् नय से साधु कहा जाता है। 146
विषय अपने आप में अच्छे या बुरे नहीं हैं, साधक की दृष्टि में मोहजन्य रागद्वेष के कारण विषय अनुकूल या प्रतिकूल बन जाते हैं। मोह मीठा जहर है, मधु-मिश्रित विष है। वह मन को मधुर लगता है, किन्तु परिणाम इसका भी विषतुल्य है। भगवद्गीता में इसी तथ्य का समर्थन किया गया है।
"प्रत्येक इन्द्रिय के अर्थ (विषय) के साथ रागद्वेष विशेष रूप से अवस्थित रहे हुए हैं। साधक उन रागद्वेषरूपी मोह के वशीभूत न हो, क्योंकि यह मोह ही अंतरंग शत्रु है।1147
1146 जो इंदिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं। __तं खलु जिदिदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू।। – समयसार, गाथा-31
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे राग-द्वेषौ व्यवस्थितौ।
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