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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
करता रहता है। 'पर' की चिन्ता में वह स्वयं कभी दुःखी होता है, कभी उदास होता है, कभी प्रसन्न होता है, कभी नाराज होता है, कभी हर्ष, तो कभी शोक से युक्त होता है। मोह के कारण उसकी समझ सम्यक् नहीं बन पाती और आत्मतत्त्व के बोध में बाधक बनती है। निशीथचूर्णि में कहा है - विवेकज्ञान का विपर्यास ही मोह है। 1142
5. सम्मोह मनुष्य के विनाश की अन्तिम स्थिति -
वस्तुतः, मोह का ही एक रूप सम्मोह है, जिसका अर्थ मूढ़ता होता है। गीता में कहा गया है
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"क्रोधाद् भवति सम्मोहः, सम्मोहात् स्मृति विभ्रमः । 1143
क्रोध से अत्यन्त मूढ़ता पैदा होती है और मूढ़ता से स्मृतिविभ्रमं होती जाती है, क्योंकि क्रोध से मनुष्य की चिन्तन-शक्ति क्षीण हो जाती है। जो कुछ थोड़ा-बहुत विवेक का प्रकाश रहता है, वह भी मोह के सघन आवरण के कारण, लुप्त हो जाता है, बुद्धि' में विभ्रम, विक्षिप्तता और चंचलता पैदा हो जाती है। गीता में आगे तो यहाँ तक कहा है
"स्मृति भ्रंशाद् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ।
स्मृति के विनाश से बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि के नाश से व्यक्तित्व का नाश हो जाता है, अतः हे अर्जुन -
यदा ते मोहकलिलं, बुद्धिर्व्यतितरिष्यति । तदा गन्तासि निर्वेद, श्रोतव्यस्य श्रुतस्यच ।।'
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अर्थात्, जब तक तेरी बुद्धि मोह के दलदल को बिल्कुल छोड़कर ऊपर आएगी और मोह से पार हो जाएगी, तभी तेरी आत्मा कुछ सुनने योग्य होगी और सुनने मात्र से वैराग्य को प्राप्त करेगी ।
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मोहो विण्णा विवच्चासो ।
गीता - 2/63
वही - 2/52
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निशीथचूर्णिभाष्य, गाथा 26
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