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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 479 देहरी तक, स्वजन श्मशान तक और यह शरीर चिता तक ही साथ देता है, फिर भी मोह-ममत्व के कारण व्यक्ति अपनी तृष्णा को प्रदीप्त करता है और इन परद्रव्यों को अपना मान लेता है। जो व्यक्ति ऐसा करता है, वह 'अज्ञानी' है, क्योंकि अज्ञानी जीव मोह से आवृत्त होते हैं और 'मोह के कारण जीव बार-बार जन्म-मरण के आवर्त में फंसता है' 1139 और 'रागद्वेष करता हुआ ममत्वबुद्धि रखता हुआ, पापकर्म करता है। 1740 गर्मी के समय रेगिस्तान की तपती भूमि में मुग प्यास से व्याकुल होकर दौड़ लगाता है, सामने चमकती रेतीली भूमि उसे धूप के कारण पानी के समान प्रतीत होती है, वह दौड़ता हुआ उसके समीप जाता है, पर पानी न मिलने पर निराश हो जाता है, पुनः आगे दृष्टि दौड़ाता है, वहाँ भी पानी नजर आता है, पर पुनः रेती देखकर प्यास से व्याकुल हुआ दौड़-दौड़कर थक जाता है और अन्ततोगत्वा प्राणों का त्याग कर देता है, पर कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाता। यही दशा यहाँ जीव की बनी हुई है। मंगतरायजी बारह भावनाओं में इसका सुन्दर चित्रण करते हुए कहते हैं -“मोहरूपी मृगतृष्णा के कारण परद्रव्य में सुख की कांक्षा में यह चेतनरूपी मृग यत्र-तत्र भ्रमण कर रहा है। सोचता है, यहाँ सुख मिलेगा, अब मिलेगा- इसी आर्तध्यान में प्राणों को खो देता है, जीव को किंचित् मात्र भी हाथ नहीं लगता। परद्रव्य से सुख की चाह में भटकता हुआ, परद्रव्यों को अपना बनाता है, मानता है, किन्तु कभी भेदज्ञान करने की चेष्टा नहीं करता।141 4. मोह आत्मतत्त्व के बोध में बाधक - मोह से युक्त जीव आत्मतत्त्व को नहीं समझता है। मै आत्मा हूँ, ज्ञान-दर्शन मेरे गुण हैं, अपनी आत्मा के अलावा सभी 'पर' हैं, व्यर्थ हैं, उनके प्रति मेरापन मिथ्या कल्पनामात्र है -इस परमसत्य का आभास भी मोहान्ध जीव को नहीं होता है। मोहासक्त अविवेकी जीव 'पर' की चिंता 1138 मंदा मोहेण पाउडा। -सूत्रकृतांगसूत्र-3/1/11 1139 मोहेण गडमै मरणाई एइ। -आचारांगसूत्र- 5/3 1140 राग-द्वोसस्सिया वाला, पापं कुव्वंति ते बहु। - सूत्रकृतांगसूत्र -1/15/7 1141 बारहभावना, मंगतरायजी, गाथा 12-13, उद्धृत, प्रशान्तवाणी, पृ. 59 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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