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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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यह बात न केवल दार्शनिक-दृष्टि से सत्य है, अपितु जीवशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक-दृष्टि से भी सत्य है। जीवशास्त्र (Biology} के अनुसार, जीवन का लक्षण है -आन्तरिक और बाह्य-संतुलन को बनाए रखना। फ्रायड नामक सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक का कथन है - चैत्त-जीवन
और स्नायुजीवन का स्वभाव यह है कि वह विक्षोभ और तनाव को मिटाकर समत्व की स्थापना करता है। विक्षोभ, तनाव और मानसिक-द्वन्द्वों से ऊपर उठकर शान्त, निर्द्वन्द्व मनःस्थिति को प्राप्त करना -यह हमारी स्वाभाविक अपेक्षा है और यही धर्म है। आचारांगसूत्र001 में “समियाए धम्मे आरियेहिं पवेइए' कहकर धर्म के स्वरूप को स्पष्ट किया है। कहा है – समता धर्म है, विषमता अधर्म है। जिस प्रकार आत्मा ज्ञान है और ज्ञान ही आत्मा है (अप्पा णाणं, णाणं अप्पा), उसी तरह समता, आत्मा और धर्म भी एकरूप
2. क्षमा आदि दस प्रकार के भाव धर्म हैं -
धर्म से आशय जहाँ वस्तु के स्वभाव से है, वहीं क्षमा आदि दस सद्गुण भी धर्म कहे गए हैं। उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्य - ये दस धर्म गिनाए गए हैं। 1002 ये सभी धर्म वस्तुतः धर्म की अपेक्षा धार्मिक-कर्त्तव्य हैं, जिनके निर्वाह से मनुष्य अपने स्व-स्वभाव में स्थित हो सकता है। ये दस धर्म मनुष्य के कर्तव्यों की ओर संकेत करते हैं कि उसे क्या करना चाहिए ? उसे अपने स्वभाव में स्थित होने के लिए दूसरों को क्षमा कर देना चाहिए, विनम्र होना
100 आचारांगसूत्र -1/8/3 1002 1) उत्तमखममद्दवज्जव सच्चसउच्चं च संजमं चेव।
तवचागमकिंचण्हं, बम्ह इदि दसविहो धम्मो।। - समणसुत्तं, गाथा 84 2) दसविधे समणधम्मे पण्णत्ते, तं जहा
खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, बंभचेरवासे।
-- स्थानांगसूत्र- 10/16 3) समवायांगसूत्र, 10 4) उत्तमः क्षमामार्दवार्जवशौचसत्य - संयमतपस्त्यागाकिंचनब्रह्मचर्याणिः धर्मः ।
- तत्त्वार्थसूत्र-9/6 5) धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः ।
घीर्विधा सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।। -मनुस्मृति 6) द्वादशानुप्रेक्षा –71-80
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