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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 435 पहुंचाता है, वह धर्म है।956 वस्तुतः, धर्म वह है, जो जीवों को पतन से उठाकर उन्नत या उच्च स्थान पर धरता है। आचार्य समंतभद्र का कहना है -"जो उत्तम स्थान पर धरता है, वही धर्म है।"957 धर्म जीवन का एक सशक्त रूप है, जिसकी अक्षुण्ण धारा अनादिकाल से प्रवाहित होती जा रही है। धर्मचेतना जीवन जीने की कला का परम उपादेय तत्त्व है, इसी कारण धर्म की अपरिवर्तनीय एवं अवर्णनीय विशेषताओं को जीवन के व्यवहार–पक्ष से संयोजित कर दिया गया है। मानव कोई भी हो, धर्म की जिजीविषा से विमुख नहीं हो सकता। जिसकी धर्मप्राणता नष्ट हो जाती है, उसका जीवन निस्सार, निष्प्राण और सत्त्वहीन हो जाता है। धर्म की पाश्चात्य विद्वानों की परिभाषा - शब्दों का वह समूह, जो किसी विषय में मुख्य सिद्धांतों को पूरी तरह से स्पष्ट करता है,958 परिभाषा कहा जाता है - परितः भाषते इति परिभाषाः । जो विषय को चारों ओर से वर्णित करे, वह परिभाषा है। अनेक पाश्चात्य दार्शनिकों ने धर्म के अर्थ को व्याख्यायित करने हेतु अनेक परिभाषाएँ दी हैं, जो धर्म के मर्म को स्पष्ट करती हैं। पाश्चात्य-विचारकों के अनुसार, धर्म की वही परिभाषा निर्दोष एवं संतोषप्रद कही जा सकती है, जो धर्म के ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक {Knowing, feeling & doing or willing} पक्ष पर प्रकाश डालती हो। बुद्धि, भावना और क्रिया -तीनों के समवेत रूप को ही धर्म कहा जा सकता है। बुद्धि का अर्थ है - ज्ञान, भावना का अर्थ हैं - श्रद्धा और 956 यस्माज्जीवं नरकतिर्यग्योनि कुमानुषदेवत्वेषु प्रयतन्तं धारयतीति धर्म। उक्त च - दुर्गतिप्रसृतान जीवान, यस्माद्धारयते यतः ।द्यते चैतान् शुभस्थाने, तस्माद्धर्म इति स्थितः ।। दशवैकालिक, जिनदासगणि चूर्णि, पृ.15 957 देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम्, संसार दुःखतः सत्त्वान् यो धारयत्युत्तमे सुखे। - रत्नकरण्डकश्रावकाचार, 2 परितः प्रतिताक्षरापि सर्व विषय प्राप्तवती गता प्रतिष्ठान ....... । - संस्कृत हिन्दी कोष, भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 587 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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