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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
से योजित करने के लिए हुआ है,953 जो मानवीय एकता के आधार पर ही संभव है।
'धर्म' शब्द 954 व्याकरण के अनुसार 'घृञ्-धारणे' धातु में 'मन्' प्रत्यय लगाने से बनता है। घृञ् का अर्थ है - स्थापित, सुरक्षित, नित्य, सहायक और धारण किया हुआ आदि, जबकि 'मन्' प्रत्यय का अर्थ है - याद करना, मानना, पूजा करना और प्रत्यक्ष करना आदि। हिन्दू-धर्मग्रंथों
और जैन-आगमों में इसी आधार पर धर्म को अलग-अलग तरह से परिभाषित किया गया है। उसके व्युत्पत्तिपरक अर्थ निम्न हैं -
ध्रियते लोकः अनेन इति धर्मः –जिससे लोक को धारण किया जाए, वह धर्म है।
धरति धारयति वा लोकं इति धर्मः - जो लोक को धारण करे, वह धर्म है।
ध्रियते यः स धर्म - जो धारण किया जाए, वह धर्म है।
महर्षि कणाद ने धर्म की व्याख्या करते हुए वैशेषिकसूत्र में लिखा है- जिससे सांसारिक-विकास तथा निःश्रेयस की प्राप्ति हो, वह धर्म है,955 अर्थात् वे विचार, सिद्धांत और आचरण धर्म कहलाते हैं, जिनसे मनुष्य की सांसारिक, सामाजिक-उन्नति के साथ-साथ आत्मिक-उन्नति भी हो। इस प्रकार, धर्म बड़ा व्यापक शब्द है, जिसमें मनुष्य का शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा, लोक-परलोक, कर्म, उपासना आदि सब कुछ सम्मिलित हैं।
दशवैकालिकचूर्णि में कहा गया है कि जिस तरह किसी वस्तु को एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर धरा जाता है, उसी तरह संसार के प्राणियों को बुरी गति में जाने से जो बचाता है, या दुःख से छुटकारा दिलाता है, साथ ही उक्त सुख को प्राप्त कराता है या उच्च गति में
953 धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म, डॉ. सागरमल जैन, पृ.2 254 क) ध्रियते लोकाऽनेन, धरति लोकं वा घृ + मन्। -संस्कृत हिन्दी कोश, भारतीय विद्या प्रकाशन,
दिल्ली, पृ. 488
ख) धारणाद् धर्म इत्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः । -वाल्मीकि रामायण-7/59, प्रक्षेप-2/70 955 यतोऽम्युदयनिः श्रेयससिद्धि स धर्मः। - वैशेषिकदर्शन- 1/1/2
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