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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व एकान्त सुखरूप मोक्ष की उपलब्धि होती है समाप्ति होने पर ही दुःख समाप्त होता है । उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि दुःख निवर्त्तक के रूप में स्वीकार किया गया है। जब तक अज्ञान, मोह, ममत्व, कषाय-भाव का विसर्जन नहीं करेंगे, सुख की उपलब्धता प्राप्त नहीं हो सकती । संक्षेप में कहें, तो दुःख - विमुक्ति के लिए वीतराग या अनासक्त जीवन-दृष्टि का निर्माण आवश्यक है। वीतरागता की उपलब्धि तभी सम्भव है, जब व्यक्ति स्पष्ट रूप से जान ले कि सांसारिक सुख वस्तुतः सुख न होकर मात्र सुखाभास हैं । 925 I राग-द्वेष और मोह की वस्तुतः जीवों को जो भी सुख या दुःख मिलते हैं, उन्हें न तो ईश्वर देता है, न ही कोई देवी-देवता की शक्ति या मानव दे सकता है। जो भी सुख या दुःख के रूप में फल मिलता है, वे सब अपने ही द्वारा इस भव में या पूर्वभव में किए हुए साता - असातावेदनीयरूप कर्मबीज के फल 1 423 सुख के बीज बोने पर जीवन की वाटिका सुख-शान्ति के सुगन्धित पुष्पों से महकती मिलती है और दुःखों के बीज बोने पर दुःख, शोक, अशान्ति, चिन्ता, अस्वस्थता, तनाव आदि असातावेदनीयकर्म के फल प्राप्त होते हैं, अतः जो मनुष्य सुखों के झूले पर झूलना चाहता है, उसे खेद, खिन्न, पीड़ित, दुःखी और अशान्त जीवों के दुःखों को अपना दुःख समझकर सुखों के बीज बोना चाहिए, दुःखों के बीज हर्गिज नहीं बोना चाहिए, तभी मनुष्य सुखानुभव कर सकता है और दुःख से बच सकता है तथा अपने और दूसरों के जीवन को सन्तुष्ट, सुखी और शान्त बना सकता है. 1926 925 926 927 सुखवाद की अवधारणा और उसकी समीक्षा 'प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्त्तते', 927 अर्थात् प्रयोजन के बिना मूर्ख या अल्पबुद्धि वाला व्यक्ति भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता उत्तराध्ययनसूत्र - 32/2 ज्ञान का अमृत से भावांशग्रहण, पृ. 277, उद्धृत - कर्मविज्ञान, आचार्य देवेन्द्रमुनि, पृ. 292. प्रमाणनयतत्त्वालोक -- 1 / 1 सूत्र विवेचना से उद्धृत । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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