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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
एकान्त सुखरूप मोक्ष की उपलब्धि होती है समाप्ति होने पर ही दुःख समाप्त होता है ।
उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि दुःख निवर्त्तक के रूप में स्वीकार किया गया है। जब तक अज्ञान, मोह, ममत्व, कषाय-भाव का विसर्जन नहीं करेंगे, सुख की उपलब्धता प्राप्त नहीं हो सकती । संक्षेप में कहें, तो दुःख - विमुक्ति के लिए वीतराग या अनासक्त जीवन-दृष्टि का निर्माण आवश्यक है। वीतरागता की उपलब्धि तभी सम्भव है, जब व्यक्ति स्पष्ट रूप से जान ले कि सांसारिक सुख वस्तुतः सुख न होकर मात्र सुखाभास हैं ।
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I राग-द्वेष और मोह की
वस्तुतः जीवों को जो भी सुख या दुःख मिलते हैं, उन्हें न तो ईश्वर देता है, न ही कोई देवी-देवता की शक्ति या मानव दे सकता है। जो भी सुख या दुःख के रूप में फल मिलता है, वे सब अपने ही द्वारा इस भव में या पूर्वभव में किए हुए साता - असातावेदनीयरूप कर्मबीज के फल
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सुख के बीज बोने पर जीवन की वाटिका सुख-शान्ति के सुगन्धित पुष्पों से महकती मिलती है और दुःखों के बीज बोने पर दुःख, शोक, अशान्ति, चिन्ता, अस्वस्थता, तनाव आदि असातावेदनीयकर्म के फल प्राप्त होते हैं, अतः जो मनुष्य सुखों के झूले पर झूलना चाहता है, उसे खेद, खिन्न, पीड़ित, दुःखी और अशान्त जीवों के दुःखों को अपना दुःख समझकर सुखों के बीज बोना चाहिए, दुःखों के बीज हर्गिज नहीं बोना चाहिए, तभी मनुष्य सुखानुभव कर सकता है और दुःख से बच सकता है तथा अपने और दूसरों के जीवन को सन्तुष्ट, सुखी और शान्त बना सकता है. 1926
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सुखवाद की अवधारणा और उसकी समीक्षा
'प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्त्तते', 927 अर्थात् प्रयोजन के बिना मूर्ख या अल्पबुद्धि वाला व्यक्ति भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता
उत्तराध्ययनसूत्र - 32/2
ज्ञान का अमृत से भावांशग्रहण, पृ. 277, उद्धृत - कर्मविज्ञान, आचार्य देवेन्द्रमुनि, पृ. 292. प्रमाणनयतत्त्वालोक -- 1 / 1 सूत्र विवेचना से उद्धृत ।
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