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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
होती, लोभ की प्रवृत्ति बढ़ती ही है। एक खेत का स्वामी बन जाने पर हृदय में दूसरे खेत खरीदने का लालच उत्पन्न हो जाता है । कहा गया है"यदि किसी एक व्यक्ति को धन-धान्यादि से परिपूर्ण यह सम्पूर्ण विश्व दे दिया जाए, तो भी वह उससे संतुष्ट नहीं होता, इतनी दुष्पूर है यह लोभात्मा । ""
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2. वस्तु के कारण
घर, मकान, फर्नीचर आदि भौतिक वस्तुओं के प्रति रागभाव रखने से लोभ की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है और इस लोभ-प्रवृत्ति के कारण संग्रहवृत्ति बढ़ती चली जाती है। वस्तु तो जड़ पदार्थ है, वह कुछ भी नहीं करती, परंतु बाजार से निकलते समय वस्तु को देखकर जीव की लोभ-संज्ञा जाग्रत हो जाती है, जो परिग्रह का कारण बनती है।
3. शरीर के कारण
शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है। इसके लिए शुद्ध और सात्त्विक आहार अतिआवश्यक है। लोभी व्यक्ति शरीर का ख्याल नहीं रखकर आहार आदि में कंजूसी करता है और स्वास्थ्य को खराब करता है। एक आदमी बीमार पड़ा, उसने वैद्य से पूछा - "मेरे इलाज में कितना खर्च होगा ?" वैद्य ने कहा- "एक हजार ।"
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"अगर मैं मर जाऊंगा, तो जलाने (अग्निसंस्कार) में कितना खर्च होगा ?",
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"तीस रुपए।"
तब सेठ बोले - "इससे तो मरना ही अच्छा है, लेकिन इतनी महंगी दवाई कभी नहीं लूंगा।"
रुपए सहस्त्र इलाज में, दाह क्रिया में तीस ।
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1) चउहिं ठाणेहि लोभुप्पत्ती सिता जहा
खेत्तं पडुच्चा, वत्युं पडुच्चा,
2)
सरीरं पडुच्चा, उवहिं पडुच्चा एवं णेरयाणं जाव वेमाणियाणं । - स्थानांगसूत्र- 4 / 83 कसिणं पि जो इमं लोयं, पडिपुण्णं दलेज्ज इक्करस । तेणावि से उन स तुरसे, इह दुष्पूरण इमे आया । ।
उत्तराध्ययन- 9/16
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