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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
आचार्य हरिभद्रसूरि का एक सुप्रसिद्ध ग्रंथ है - ललितविस्तरा । यह शक्रस्तव की एक पाण्डित्यपूर्ण दार्शनिक - विवेचना है । इस ग्रंथ में माया की तुलना 'माता' से की गई है
दोषाच्छादकत्वात् संसारिजन्महेतुत्पाद् वा मातेव माया । 71
जिस प्रकार माता अपने पुत्र के दोषों को ढंकती है, उसी प्रकार माया से भी मनुष्य अपने दोषों को ढंकने का प्रयास करता है। दूसरे अर्थ में माता जिस प्रकार प्राणियों के जन्म का हेतु बनती है, उसी प्रकार माया भी प्राणियों के संसार में जन्म लेने का हेतु बनती है।
वस्तुतः, अपने दोषों को मिटाने का, हटाने का, दूर करने का प्रयास अच्छा है, परंतु उन दोषों पर परदा डालने का प्रयास बुरा है ।
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ललितविस्तरा, आ. हरिभद्रसूरि, विवेचनकार पू. प. श्री भानुविजयजी, पृ. 10
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