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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व आरोग्यदायिनी प्रीतिविशेष ऋजुता (आर्जव ) है, जो कपट- भाव के त्यागपूर्वक मायाकषाय पर विजय प्राप्त कराकर मुक्ति का कारण बनती है । 362 कुटिलता की कील से जकड़ा हुआ क्लिष्टचित्त एवं ठगने में शिकारी के समान दक्ष मनुष्य स्वप्न में भी सुख को प्राप्त नहीं कर सकता । भले ही मनुष्य समग्र कलाओं चतुर हो, समस्त विद्याओं में पारंगत हो, लेकिन बालक जैसी सरलता न हो, कपटरहित हृदय न हो, तो साधना में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता । गणधर गौतमस्वामी श्रुतसमुद्र में पारंगत थे। पचास हजार शिष्यों के गुरु, फिर भी आश्चर्य है कि वे नवदीक्षित के समान सरलता के धनी बनकर भगवद्ववचन सुनते थे। कितने ही दुष्कर्म किए हों, लेकिन सरलता से जो अपने कृत दुष्कर्मों की आलोचना कर लेता है, वह समस्त कर्मों का क्षय कर देता है, परन्तु यदि लक्ष्मणा साध्वी की तरह कपट रखकर दम्भपूर्वक आलोचना की, तो उसका पाप अल्पमात्र होते हुए भी वह संसारवृद्धि का कारण बनेगा । मोक्ष और साधना में सफलता उसे ही मिलती है, जिसकी आत्मा में सब प्रकार की सरलता हो । जिसके मन, वाणी और कर्म (काया) में कुटिलता भरी है, उसकी मुक्ति किसी प्रकार भी नहीं होती, अतः विवेकबुद्धि से सरलभाव का आश्रय लेकर माया पर विजय प्राप्त की जा सकती है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी कहा है – “माया - विजय से सरलता आती है, माया - वेदनीय का बन्ध नहीं होता तथा पूर्वबद्ध माया की निर्जरा हो जाती है 1770 प्रमादवश हुए कपट- आचरण के प्रति आलोचना करके जो सरल हृदय हो जाता है, वह धर्म का आराधक है। जब तक मन निष्कपट और मायारहित नहीं बनता, साधना सफल नहीं हो सकती। कहा भी है चंगा, तो कठौती में गंगा । भक्त ने गुरु से पूछा पहुंचने का सरल मार्ग क्या है ?" गुरु ने कहा स्वर्ग मिल जायगा ।" 770 माया - विजएणं अज्जवं जणयइ माया - वेयणिज्जं कम्मं च बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ । - Jain Education International मन "गुरुदेव ! स्वर्ग (मोक्ष) "वत्स! सरल बन जाओ, - उत्तराध्ययनसूत्र - 29/70 For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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